पवन मेराज : गर्म हवा 1974 में रिलीज हुई, आज गर्म हवा की क्या प्रासंगिकता है ?
एम.एस.सथ्यू: कभी-कभी ऐसी फिल्में बन जाती है जो अपने मायने कभी नहीं खोतीं। वैसे भी आजकल हम धर्म जाति, और क्षेत्रीयता को लेकर अधिक संकीर्ण होकर सोचने लगे हैं। इन सब सच्चाइयों को देखते हुए गर्म हवा की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
एम.एस.सथ्यू: कभी-कभी ऐसी फिल्में बन जाती है जो अपने मायने कभी नहीं खोतीं। वैसे भी आजकल हम धर्म जाति, और क्षेत्रीयता को लेकर अधिक संकीर्ण होकर सोचने लगे हैं। इन सब सच्चाइयों को देखते हुए गर्म हवा की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
पवन: ऐसे समय में कला की समाज के प्रति क्या जिम्मेदारी बनती है।
सथ्यू: समाज के यथार्थ को सामने लाना ही कला की मुख्य जिम्मेदारी हैं। मैं इस बात का हामी नहीं कि कला सिर्फ कला के लिये होती है। कला के सामाजिक सरोकार होते हैं।
पवन: लेकिन व्यवसायिक सिनेमा भी तो यथार्थ को अपनी तरह से सामने लाता है फिर समानांतर सिनेमा इससे अलग कैसे ?
सथ्यू: वे बेसिकली पैसा बनाते हैं। उनके लिये समस्याएं भी बिकाऊ माल हैं। गरीबी से लेकर विधवा के आंसू तक के हर संेटीमेंट को वे एक्सप्लाइट करते हैं। समस्याओं को देखने का नजरिया, समाज के प्रति कमिटमेण्ट और समानांतर सिनेमा का ट्रीटमेंट ही इसे व्यावसायिक सिनेमा से अलग करता है।
पवन: अपने ट्रीटमेंट में गर्म हवा कैसे अलग है ?
सथ्यू: देखिये पहली बात हो हम एक विचारधारा से जुड़े हुए लोग थे इसीलिये यह फिल्म बन पायी। ‘पूरी फिल्म इस्मत चुगताई की एक कहानी से प्रभावित है। एक पात्र राजिंदर सिंह बेदी की कहानी से भी प्रेरित था। आपको हैरानी होगी पूरी फिल्म आगरा और फतेहपुर सीकरी में शूट की गयी। इसमें बनावटी चीज कुछ भी नहीं है। आज इस तरह सोचना भी मुश्किल है। आज की फिल्मों में बहुत बनावटीपन है। कहानी हिन्दुस्तान की होती है शूटिंग विदेश में... (हँसते हैं) शादियाँ तो ऐसे दिखाई जाती हैं गोया सारी शादियाँ पंजाबी शादियों की तरह ही होती हैं। इस फिल्म में दृश्यों की अर्थवत्ता और स्वाभाविकता को बनाये रखने के लिये कम से कम सोलह ऐसे सीन हैं जिसमें एक भी कट नहीं है। कैमरे के कलात्मक मूवमेंट द्वारा ही यह सम्भव हो सका। आज के निर्देशक ऐसा नहीं करते।
पवन: बिना कट किये पूरा सीन फिल्माना तो कलाकारों के लिये भी चुनौती रही होगी ?
सथ्यू: वे सब थियेटर के मंजे हुए कलाकार थे जिन्हें डायलाग से लेकर हर छोटी से छोटी बात याद रहती थी... यहां तक भी कितने कदम चलना है और कब घूमना है...रंगमंच का अनुभव कलाकारों को परिपक्व बना देता है। इसलिये कभी कोई दिक्कत पेशन नहीं आयी।
पवन: इस फिल्म के उस मार्मिक सीन में जब नायिका मर जाती है तो पिता के रोल में बलराज साहनी की आँखों से कोई आँसू नहीं गिरता यह बात दुख को और बढ़ा देती है ?
सथ्यू: असल में बलराज जी की जिंदगी में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। उनकी एक बेटी ने आत्महत्या कर ली थी। बलराज उस शूटिंग से लौट कर आये थे और उन्होंने कुछ इसी तरह सीढ़ियाँ चढ़ी थीं जैसा फिल्म में था। बलराज उस समय इतने अवसन्न हो गये थे कि रो भी नहीं पाये। उस वक्त उनसे पारिवारिक रिश्तों के चलते मैं वहीं था। फिल्म बनाते समय मेरे जेहन में वहीं घटना थी पर मैं बलराज जी से सीधे-सीधे नहीं कह सकता था इसलिये मैंने सिर्फ इतना कहा कि आपको इस सीन में रोना नहीं है.. बलराज समझ गये और उन्होंने जो किया था आपके सामने है।
पवन: इस फिल्म का अंत भी बहुत सकारात्मक था ?
सथ्यू: दरअसल यह भी बलराज जी का ही योगदान था। उन्होंने ही इस तरह के अंत को सुझाया। वे बहुत समर्थ कलाकार थे। ‘दो बीघा जमीन’, ‘गर्म हवा’ और दूसरी कई फिल्मों में अपने शानदार अभिनय के बावजूद उन्हें कभी नेशनल अवार्ड नहीं मिला तो सिर्फ इसलिये क्योंकि वे कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर थे। हम डेमोक्रेसी में रहते हैं और फिर भी ऐसी बातें हो जाया करती हैं।
सथ्यू: समाज के यथार्थ को सामने लाना ही कला की मुख्य जिम्मेदारी हैं। मैं इस बात का हामी नहीं कि कला सिर्फ कला के लिये होती है। कला के सामाजिक सरोकार होते हैं।
पवन: लेकिन व्यवसायिक सिनेमा भी तो यथार्थ को अपनी तरह से सामने लाता है फिर समानांतर सिनेमा इससे अलग कैसे ?
सथ्यू: वे बेसिकली पैसा बनाते हैं। उनके लिये समस्याएं भी बिकाऊ माल हैं। गरीबी से लेकर विधवा के आंसू तक के हर संेटीमेंट को वे एक्सप्लाइट करते हैं। समस्याओं को देखने का नजरिया, समाज के प्रति कमिटमेण्ट और समानांतर सिनेमा का ट्रीटमेंट ही इसे व्यावसायिक सिनेमा से अलग करता है।
पवन: अपने ट्रीटमेंट में गर्म हवा कैसे अलग है ?
सथ्यू: देखिये पहली बात हो हम एक विचारधारा से जुड़े हुए लोग थे इसीलिये यह फिल्म बन पायी। ‘पूरी फिल्म इस्मत चुगताई की एक कहानी से प्रभावित है। एक पात्र राजिंदर सिंह बेदी की कहानी से भी प्रेरित था। आपको हैरानी होगी पूरी फिल्म आगरा और फतेहपुर सीकरी में शूट की गयी। इसमें बनावटी चीज कुछ भी नहीं है। आज इस तरह सोचना भी मुश्किल है। आज की फिल्मों में बहुत बनावटीपन है। कहानी हिन्दुस्तान की होती है शूटिंग विदेश में... (हँसते हैं) शादियाँ तो ऐसे दिखाई जाती हैं गोया सारी शादियाँ पंजाबी शादियों की तरह ही होती हैं। इस फिल्म में दृश्यों की अर्थवत्ता और स्वाभाविकता को बनाये रखने के लिये कम से कम सोलह ऐसे सीन हैं जिसमें एक भी कट नहीं है। कैमरे के कलात्मक मूवमेंट द्वारा ही यह सम्भव हो सका। आज के निर्देशक ऐसा नहीं करते।
पवन: बिना कट किये पूरा सीन फिल्माना तो कलाकारों के लिये भी चुनौती रही होगी ?
सथ्यू: वे सब थियेटर के मंजे हुए कलाकार थे जिन्हें डायलाग से लेकर हर छोटी से छोटी बात याद रहती थी... यहां तक भी कितने कदम चलना है और कब घूमना है...रंगमंच का अनुभव कलाकारों को परिपक्व बना देता है। इसलिये कभी कोई दिक्कत पेशन नहीं आयी।
पवन: इस फिल्म के उस मार्मिक सीन में जब नायिका मर जाती है तो पिता के रोल में बलराज साहनी की आँखों से कोई आँसू नहीं गिरता यह बात दुख को और बढ़ा देती है ?
सथ्यू: असल में बलराज जी की जिंदगी में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। उनकी एक बेटी ने आत्महत्या कर ली थी। बलराज उस शूटिंग से लौट कर आये थे और उन्होंने कुछ इसी तरह सीढ़ियाँ चढ़ी थीं जैसा फिल्म में था। बलराज उस समय इतने अवसन्न हो गये थे कि रो भी नहीं पाये। उस वक्त उनसे पारिवारिक रिश्तों के चलते मैं वहीं था। फिल्म बनाते समय मेरे जेहन में वहीं घटना थी पर मैं बलराज जी से सीधे-सीधे नहीं कह सकता था इसलिये मैंने सिर्फ इतना कहा कि आपको इस सीन में रोना नहीं है.. बलराज समझ गये और उन्होंने जो किया था आपके सामने है।
पवन: इस फिल्म का अंत भी बहुत सकारात्मक था ?
सथ्यू: दरअसल यह भी बलराज जी का ही योगदान था। उन्होंने ही इस तरह के अंत को सुझाया। वे बहुत समर्थ कलाकार थे। ‘दो बीघा जमीन’, ‘गर्म हवा’ और दूसरी कई फिल्मों में अपने शानदार अभिनय के बावजूद उन्हें कभी नेशनल अवार्ड नहीं मिला तो सिर्फ इसलिये क्योंकि वे कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर थे। हम डेमोक्रेसी में रहते हैं और फिर भी ऐसी बातें हो जाया करती हैं।
पवन: फिल्म रिलीज होने के बाद खुद बलराज जी की क्या प्रतिक्रिया थी ?
सथ्यू: दुर्भाग्य से वो यह फिल्म रिलीज होने तक जिंदा नहीं रहे। फिल्म के अंत में जब वे कहते कि मै। इस तरह अब अकेला नहीं जी सकता और संघर्ष करती जनता के लाल झण्डे वाले जुलूस में शामिल हो जाते हैं यह उनके अभिनय जीवन का भी अंतिम शॉट था।
पवन: एक कलाकार की राजनैतिक भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं ?
सथ्यू: जी हाँ, बिलकुल ! कोई भी चीज राजनीति से अलग नहीं है। कलाकार का भी एक राजनीतिक कमिटमेंट होता है और उनकी कला में भी दिखता भी है। अगर कोई यह कहता है कि उसका राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है तो वह अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है।
पवन: कला, समाज को प्रभावित करती है लेकिन समाज, कला को किस तरह प्रभावित करता है?
सथ्यू: मैं दोनों को अलग करके नहीं देखता। समाज के तत्कालीन प्रश्न ही कलाकृति का आधार बनते हैं। वे बुराइयाँ हैं जिन्हें हम लंबे समय से स्वीकार करते आ रहे हैं, एक कलाकार उन्हेे अपनी कला के जरिये समाज के सामने दुबारा खोलकर रखता है और अपने प्रेक्षक को उन पर सोचने को मजबूर कर देता है।
पवन: 70 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी मूवमेंट के उभार से लगभग हर कला, साहित्य और फिल्म प्रभावित रही, ‘इप्टा’ जैसा सांस्कृतिक आंदोलन भी चला। लेकिन अब वह उतार पर नजर आता है। ऐसा क्यों?
सथ्यू: दुर्भाग्य से वो यह फिल्म रिलीज होने तक जिंदा नहीं रहे। फिल्म के अंत में जब वे कहते कि मै। इस तरह अब अकेला नहीं जी सकता और संघर्ष करती जनता के लाल झण्डे वाले जुलूस में शामिल हो जाते हैं यह उनके अभिनय जीवन का भी अंतिम शॉट था।
पवन: एक कलाकार की राजनैतिक भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं ?
सथ्यू: जी हाँ, बिलकुल ! कोई भी चीज राजनीति से अलग नहीं है। कलाकार का भी एक राजनीतिक कमिटमेंट होता है और उनकी कला में भी दिखता भी है। अगर कोई यह कहता है कि उसका राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है तो वह अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है।
पवन: कला, समाज को प्रभावित करती है लेकिन समाज, कला को किस तरह प्रभावित करता है?
सथ्यू: मैं दोनों को अलग करके नहीं देखता। समाज के तत्कालीन प्रश्न ही कलाकृति का आधार बनते हैं। वे बुराइयाँ हैं जिन्हें हम लंबे समय से स्वीकार करते आ रहे हैं, एक कलाकार उन्हेे अपनी कला के जरिये समाज के सामने दुबारा खोलकर रखता है और अपने प्रेक्षक को उन पर सोचने को मजबूर कर देता है।
पवन: 70 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी मूवमेंट के उभार से लगभग हर कला, साहित्य और फिल्म प्रभावित रही, ‘इप्टा’ जैसा सांस्कृतिक आंदोलन भी चला। लेकिन अब वह उतार पर नजर आता है। ऐसा क्यों?
सथ्यू:
देखिये, जहां तक मूवमेंट का सवाल है। इसने हमें एक सपना दिया- ‘बेहतर
दुनिया का सपना’। हम सब इससे प्रभावित थे। मैंने पहले भी कहा आंदोलन से
जुड़े होने के कारण ही हम लोग ‘गर्म हवा’ बना सके। लेकिन यह ग्लोबलाइजेशन का
दौर है और हम बदलती परिस्थितियों के हिसाब से खुद को नया नहीं बना सके,
इसीलिये ऐसा हुआ। मार्क्स ने भी कहा था-यह परिवर्तन का दर्शन है। हमें इस
तरफ भी सोचना होगा।
पवन: लेकिन आज आंदोलन की हर धारा इस पर विचार कर रही है और नित नए प्रयोग हो रहे हैं। नेपाल में माओवादियों का प्रयोग आपके सामने है।
सथ्यू: हाँ, वहाँ कुछ बातें अच्छी हैं। आज कल के जमाने में माओविस्ट रेवोल्यूशन को कंडेम किया जाता है.... लेफ्ट के लोगों ने भी किया है। नक्सलाइट आज भी है। उनकी भी एक आइडियालॉजी है। कहा जाता हैकि वे काफी ंिहंसक भी हो जाते हैं। लेकिन माओवादियों की सरकार के साथ बैठक और उसमें हिस्सा लेने से बहुत फर्क पड़ा है।
पवन: ‘गर्म हवा’ जैसी समानांतर धारा की फिल्में क्या आपको नहीं लगता कि एक विशेष वर्ग में सिमट कर रह जाती हैं। क्या इनका फैलाव आम जनता तक नहीं होना चाहिये ?
सथ्यू: होना चाहिये, यह जरूरी है। लेकिन एक लंबे दौर तक ऐसा हो पाएगा, ऐसा कह पाना संभव नहीं है। फिलहाल ऐसा नहीं हो सकता। साहित्य में भी नहीं होता। घटिया साहित्य ज्यादा छपता और पढ़ा जाता है। मल्टीप्लैक्स में ‘वैलकम’ जैसी फिल्म देखने वाले ऐसी फिल्म नहीं देख सकते। फिल्म देखना भी एक कला है जिसके लिये आँखें होनी चाहिये। इसकी ट्रेनिंग शुरू से ही लोगों को दी जानी चाहिये।
पवन: समानांतर सिनेमा के सामने आज कौन सी चुनौतियाँ हैं ?
सथ्यू: फिल्म बनाना एक महंगा काम है। इसके लिये स्पॉन्सर और प्रोत्साहन की जरूरत होती है। ‘लगान’ की चर्चा ऑस्कर में आने की वजह से भी हुई और इसकी टीम ने फिल्म को वहां प्रदर्शित करने में करोड़ों रूपये फूँक दिए, जिसमें एक नई फिल्म बन सकती थी। मजे की बात यह है कि ‘लगान’ के पास ऑस्कर में नामांकन का वही सर्टिफिकेट है जो ‘गर्म हवा’ को उससे 30-35 साल पहले मिला था। यह फिल्म कान फेस्टिवल में भी दिखाई गई और तब ऑस्कर के चयनकर्ताओं ने इसे ऑस्कर समारोह में दिखाने को कहा। मैं सिर्फ पैसे की तंगी के चलते वहाँ नहीं जा सका। हाँ, मैंने फिल्म भेज दी और इसका सर्टिफिकेट मेरे पास पड़ा है।
पवन: क्या पैसे की तंगी ने फिल्म बनाने की प्रक्रिया में बाधा डाली ?
सथ्यू: फिल्में सिर्फ पैसे से नहीं, पैशन से बनती हैं। (मुस्कराते हैं) लेकिन पैसा भी चाहिये। उस जमाने में 2.5 लाख निगेटिव बनने में लगा। हमारे पास साउंड रिकॉर्डिंग का सामान मुंबई से आता था और उसके साथ एक आदमी भी। इसका 150 रू0 प्रतिदिन का खर्च था और हमारे पास इतने भी नहीं थे। अंततः सारी शूटिंग बिना साउंड रिकार्डिंग के ही हुई। फिल्म बाद में बंबई जाकर डब की गई। तकरीबन 9 लाख कुल खर्चा आया, पूरी फिल्म में। कई कलाकारों को मैं उनका मेहनताना भी नहीं दे सका... मेरे ऊपर बहुत सा कर्जा हो गया और नौ साल लगे इससे उबरने में।
पवन : इसके अलावा और क्या-क्या समस्याएँ आईं ?
सथ्यू: खुद की तारीफ नहीं करना चाहिये। लेकिन कहूँगा कि बेहतरीन फिल्म बनी थी और मैं समझता हूँ कि समाज पर भी सकारात्मक प्रभाव डालती। लेकिन शुरूआत में रिलीज के लिये इसे सेंसर सर्टिफिकेट नहीं मिला। कहा गया इससे समाज में तनाव फैल सकता है... इस बकवास पर कोई माथा ही पीट सकता था क्योंकि उस समय तमाम लोग कुछ ऐसा कर रहे थे जो समाज पर बुरा प्रभाव डाल रहा था। एक साल की जद्दोजहद के बाद इंदिराजी ने जब खुद पूरी फिल्म देखी और कहा रिलीज कर दो... तब ही इसका रिलीज संभव हो पाया... लेकिन यू.पी. में नहीं। (मुस्कराते हैं)...वहाँ चुनाव होने वाले थे। इस तरह 1973 में तैयार फिल्म 74 में सबसे पहले बंगलौर में रिलीज हो सकी।
पवन: आप रंगमंच में काफी सक्रिय रहे। फिल्म और रंगमंच में आप मुख्यतः क्या अंतर पाते हैं ?
सथ्यू: अपनी बात कहने की दो अलग-अलग विधाएं हैं...कैमरे की वजह से काफी सहूलियत हो जाती है लेकिन रंगमंच एक संस्कार है। यहां कलाकार और दर्शक का तादात्म्य स्थापित होता है। यह विधा बहुत पुरानी है और कभी नहीं मरेगी।
पवन : आपकी दूसरी फिल्मों को ‘गर्म हवा’ जितनी चर्चा नहीं मिली ?
सथ्यू : ‘गर्म हवा’ जैसी फिल्म कोई रोज नहीं बना सकता... ऐसी फिल्में बस बन जाती हैं कभी-कभी। ‘पाथेर पांचाली, सुवर्ण रेखा’ जैसी फिल्में हमेशा नहीं बन सकतीं।
पवन मेराज़ मो. 09179371433
(‘‘प्रगतिशील वसुधा’’ से साभार)
सथ्यू: हाँ, वहाँ कुछ बातें अच्छी हैं। आज कल के जमाने में माओविस्ट रेवोल्यूशन को कंडेम किया जाता है.... लेफ्ट के लोगों ने भी किया है। नक्सलाइट आज भी है। उनकी भी एक आइडियालॉजी है। कहा जाता हैकि वे काफी ंिहंसक भी हो जाते हैं। लेकिन माओवादियों की सरकार के साथ बैठक और उसमें हिस्सा लेने से बहुत फर्क पड़ा है।
पवन: ‘गर्म हवा’ जैसी समानांतर धारा की फिल्में क्या आपको नहीं लगता कि एक विशेष वर्ग में सिमट कर रह जाती हैं। क्या इनका फैलाव आम जनता तक नहीं होना चाहिये ?
सथ्यू: होना चाहिये, यह जरूरी है। लेकिन एक लंबे दौर तक ऐसा हो पाएगा, ऐसा कह पाना संभव नहीं है। फिलहाल ऐसा नहीं हो सकता। साहित्य में भी नहीं होता। घटिया साहित्य ज्यादा छपता और पढ़ा जाता है। मल्टीप्लैक्स में ‘वैलकम’ जैसी फिल्म देखने वाले ऐसी फिल्म नहीं देख सकते। फिल्म देखना भी एक कला है जिसके लिये आँखें होनी चाहिये। इसकी ट्रेनिंग शुरू से ही लोगों को दी जानी चाहिये।
पवन: समानांतर सिनेमा के सामने आज कौन सी चुनौतियाँ हैं ?
सथ्यू: फिल्म बनाना एक महंगा काम है। इसके लिये स्पॉन्सर और प्रोत्साहन की जरूरत होती है। ‘लगान’ की चर्चा ऑस्कर में आने की वजह से भी हुई और इसकी टीम ने फिल्म को वहां प्रदर्शित करने में करोड़ों रूपये फूँक दिए, जिसमें एक नई फिल्म बन सकती थी। मजे की बात यह है कि ‘लगान’ के पास ऑस्कर में नामांकन का वही सर्टिफिकेट है जो ‘गर्म हवा’ को उससे 30-35 साल पहले मिला था। यह फिल्म कान फेस्टिवल में भी दिखाई गई और तब ऑस्कर के चयनकर्ताओं ने इसे ऑस्कर समारोह में दिखाने को कहा। मैं सिर्फ पैसे की तंगी के चलते वहाँ नहीं जा सका। हाँ, मैंने फिल्म भेज दी और इसका सर्टिफिकेट मेरे पास पड़ा है।
पवन: क्या पैसे की तंगी ने फिल्म बनाने की प्रक्रिया में बाधा डाली ?
सथ्यू: फिल्में सिर्फ पैसे से नहीं, पैशन से बनती हैं। (मुस्कराते हैं) लेकिन पैसा भी चाहिये। उस जमाने में 2.5 लाख निगेटिव बनने में लगा। हमारे पास साउंड रिकॉर्डिंग का सामान मुंबई से आता था और उसके साथ एक आदमी भी। इसका 150 रू0 प्रतिदिन का खर्च था और हमारे पास इतने भी नहीं थे। अंततः सारी शूटिंग बिना साउंड रिकार्डिंग के ही हुई। फिल्म बाद में बंबई जाकर डब की गई। तकरीबन 9 लाख कुल खर्चा आया, पूरी फिल्म में। कई कलाकारों को मैं उनका मेहनताना भी नहीं दे सका... मेरे ऊपर बहुत सा कर्जा हो गया और नौ साल लगे इससे उबरने में।
पवन : इसके अलावा और क्या-क्या समस्याएँ आईं ?
सथ्यू: खुद की तारीफ नहीं करना चाहिये। लेकिन कहूँगा कि बेहतरीन फिल्म बनी थी और मैं समझता हूँ कि समाज पर भी सकारात्मक प्रभाव डालती। लेकिन शुरूआत में रिलीज के लिये इसे सेंसर सर्टिफिकेट नहीं मिला। कहा गया इससे समाज में तनाव फैल सकता है... इस बकवास पर कोई माथा ही पीट सकता था क्योंकि उस समय तमाम लोग कुछ ऐसा कर रहे थे जो समाज पर बुरा प्रभाव डाल रहा था। एक साल की जद्दोजहद के बाद इंदिराजी ने जब खुद पूरी फिल्म देखी और कहा रिलीज कर दो... तब ही इसका रिलीज संभव हो पाया... लेकिन यू.पी. में नहीं। (मुस्कराते हैं)...वहाँ चुनाव होने वाले थे। इस तरह 1973 में तैयार फिल्म 74 में सबसे पहले बंगलौर में रिलीज हो सकी।
पवन: आप रंगमंच में काफी सक्रिय रहे। फिल्म और रंगमंच में आप मुख्यतः क्या अंतर पाते हैं ?
सथ्यू: अपनी बात कहने की दो अलग-अलग विधाएं हैं...कैमरे की वजह से काफी सहूलियत हो जाती है लेकिन रंगमंच एक संस्कार है। यहां कलाकार और दर्शक का तादात्म्य स्थापित होता है। यह विधा बहुत पुरानी है और कभी नहीं मरेगी।
पवन : आपकी दूसरी फिल्मों को ‘गर्म हवा’ जितनी चर्चा नहीं मिली ?
सथ्यू : ‘गर्म हवा’ जैसी फिल्म कोई रोज नहीं बना सकता... ऐसी फिल्में बस बन जाती हैं कभी-कभी। ‘पाथेर पांचाली, सुवर्ण रेखा’ जैसी फिल्में हमेशा नहीं बन सकतीं।
पवन मेराज़ मो. 09179371433
(‘‘प्रगतिशील वसुधा’’ से साभार)
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