गुरुवार, 12 मई 2011

स्मरण : सआदत हसन मंटो

भारतीय उपमहाद्वीप के ही नहीं, सारी दुनिया के महानतम आधुनिक कथाकारों में से एक सआदत हसन मंटो का जन्मशती वर्ष शुरू हो रहा है। मंटो 11 मई 1912 को पैदा हुए थे और 1 8 जनवरी 1955 को उनका असामयिक निधन हो गया था। मंटो का लेखन चर्चित होने के साथ-साथ विवादों मंे भी घिरा रहा। अविभाजित भारत और पाकिस्तान में उन पर अश्लीलता के लिए कई मुकदमे हुए, लेकिन आज मंटो को उनकी गहरी मानवीय दृष्टि और मार्मिकता के लिए जाना जाता है। प्रस्तुत है विभाजन की त्रासदी पर उनके स्याह हाशिए से दो कहानियां।
तआवुन
चालीस-पचास लठबंद आदमियों का एक गिरोह लूट-मार के लिए एक मकान की तरफ बढ़ रहा था। दफ्अतन उस भीड़ को चीर कर एक दुबला-पतला अधेड़ उम्र का आदमी बाहर निकला। पलट कर वह बलवाइयों से लीडराना अंदाज में मुखातिब हुआ: “भाइयो, इस मकान में बेअंदाजा दौलत है, बेशुमार किमती सामान है... आओ हम सब मिल कर इस पर काबिज हो जाएं और माले-गुनीमत आपस में बांट लें।”
हवा में कई लाठियां लहराईं, कई मुक्के भिंचे और बुलंद वाँग-नारों का एक फव्वारा सा छूट पड़ा।
चालीस-पचास लठबंद आदमियों का गिरोह दुबले-पतले अधेड़ उम्र के आदमी की कयादत में उस मकान की तरफ तेजी से बढ़ने लगा, जिसमें बेअंदाजा दौलत और बेशुमार कीमती सामान था।
मकान के सदर दरवाजे के पास रूक कर दुबला-पतला आदमी फिर बलवाइयों से मुखातिब हुआ: “भाइयों, इस मकान में जितना भी माल है, सब तुम्हारा है... देखो, छीना-झपटी नहीं करना, आपस में नहीं लड़ना, आओ!“
एक चिल्लाया: “दरवाजे में ताला है।“
दूसरे ने बआवजे बुलंद कहा: “तोड़ दो।“
“तोड़ दो, तोड़ दो।“ हवा  में कई लाठियां लहराई, कई मुक्के भिंचे और बुलंद बांग-नारो का एक फव्वारा-सा छूट पड़ा।
दुबले-पतले आदमी ने हाथ के इशारे से दरवाजा तोड़ने वालों को रोका और मुसकराकर कहाः “भाइयों, ठहरो... मैं इसे चाबी से खोलता हूं।“
यह कहकर उसने जेब से चाबियों का गुच्छा निकाला और एक चाबी मुंतखब करके ताले में डाली और इसे खोल दिया- शीशम का भारी दरवाजा एक चीख के साथ वो हुआ तो हुजूम दीवानावार अंदर दाखिल होने के लिए आगे बढ़ा। दुबले-पतले आदमी ने माथे का पसीना अपनी आस्तीन से पोंछते हुए कहा: “भाइयांे, आराम से जो कुछ इस मकान में है, सब तुम्हारा है, फिर इस अफरा-तफरी की क्या जरूरत है?“
फौरन ही हुजूम में जब्त पैदा हो गया एक-एक करके बलवाई मकान के अंदर दाखिल होने लगे, लेकिन जूं ही चीजों की लूटमार शुरू हुई, फिर धांधली मच गई। बड़ी बेरहमी से बलवाई कीमती चीजों पर हाथ साफ करने लगे।
दुबले-पतले आदमी ने जब यह मंजर देखा तो बड़ी दुख भरी आवाज में लुटेरों से कहा: “भाइयों, आहिस्ता-आहिस्ता... आपस में लड़ने-झगड़ने की कोई जरूरत नहीं... नोच-खसोट की भी कोई जरूरत नहीं... तआवुन से काम लो। अगर किसी के हाथ ज्यादा कीमती चीज आ गई है तो हासिद मत बनो... इतना बड़ा मकान है, अपने लिए कोई और चीज ढूंढ़ लो... मगर वहशी न बनो... मार- धाड़ करोगे तो चीजें टूट जाएंगी... इसमें नुकसान तुम्हारा ही है...“ लुटेरों में एक बार फिर नज्म पैदा होग या, और भरा हुआ मकान आहिस्ता-आहिस्ता खाली होने लगा।
दुबला-पतला आदमी वक्तन- फक्वतन हिदायते देता रहा: “देखो भैया, वह रेडियो है... जरा आराम से उठाओ, ऐसा न हो कि टूट जाए... इसके तार भी साथ लेते जाओ...“
“तह कर लो भाई, इसे तह कर लो... अखरोट की लकड़ी की निपाई है, हाथीदांत की पच्चीकारी है, बड़ी नाजुक चीज है है... हां अब ठीक है...““
“नहीं-नहीं, यहां मत पियो, बहक जाओगे... इसे घर ले जाओ ...“
“ठहरो-ठहरो, मुझे मेन स्विच बंद कर लेने दो... कहीं करंट से धक्का न लग जाए...“
इतने में एक कोने से शोर बुलंद हुआ- चार बलवाई रेशमी कपड़े के एक थान पर छीना-झपटी कर रहे थे।
दुबला-पतला आदमी तेजी से उसकी तरफ बढ़ा और मलामत भरे लह्जे में उनसे कहने लगा: “तुम लोग कितने बेसमझ हो... चिंदी-चिंदी हो जाएगी ऐसे कीमती कपड़े की... घर में सब चीजें मौजूद हैं गज भी होगा... तलाश करो और नाप कर कपड़ा आपस में तकसीम कर लो...“
दफ्अतन एक कुत्ते के भौंकने की आवाज आई: अफ़-अफ़-अफ़... और चश्मे-जदन में एक बहुत बड़ा गद्दी कुत्ता एक जस्त के साथ अंदर लपका, और लपकते ही उसने दो-तीन लुटेरों को भंभोड़ दिया।
दुबला-पतला आदमी चिल्लाया: “टाइगर-टाइगर...“
टाइगर, जिसके मुुंह में एक लुटेरे का नुचा हुए गिरेबान था, दुम हिलाता हुआ दुबले-पतले आदमी की तरफ निगाहें नीची किए कदम उठाने लगा।
टाइगर के आते ही सब लुटेरे भाग गए थे, सिर्फ एक लुटेरा बाकी रह गया था, जिसके गिरेबान का टुकड़ा टाइगर के मुंह में था।
उसने दुबले-पतले आदमी की तरफ देखा और पूछा: “कौन हो तुम?
दुबला-पतला आदमी मुसकराया: “इस घर का मालिक, देखो-देखो, तुम्हारे हाथ से कांच का मर्तबान गिर रहा है।“
तकसीम
एक आदमी ने अपने लिए लकड़ी का एक बड़ा संदूक मुंतखब किया, जब उसे उठाने लगा तो संदूक अपनी जगह से एक इंच भी न हिला। एक शख्स ने जिसे शायद अपने मतलब की कोई चीज मिल ही नहीं रही थी, संदूक उठाने की कोशिश करने वाले से कहा: ”मैं तुम्हारी मदद करूँ।“
संदूक उठाने की कोशिश करने वाला इम्दाद लेने पर राजी हो गया।
उस शख्स ने जिसे अपने मतलब की कोई चीज मिल नहीं रही थी, अपने मजबूत हाथों से संदूक को जुंबिश दी और संदूक को उठाकर अपनी पीठ पर धर लिया - दूसरे ने सहारा दिया, और दोनों बाहर निकले।
संदूक बहुत बोझिल था। उसके वजन के नीचे उठाने वाले की पीठ चटख रही थी और टाँगें दोहरी हुई जा रहीं थीं, मगर इनाम की तवक्को ने उस जिस्मानी मशक्कत का एहसास नीम मुर्दा कर दिया था।
संदूक उठाने वाले के मुकाबले में संदूक मुंतखब करने वाला बहुत कमजोर था - सारा रास्ता वह सिर्फ एक हाथ से संदूक को सहारा देकर अपना हक कायम रखता रहा।
जब दोनों महफूज मुकाम पर पहुंच गए तो संदूक को एक तरफ रख कर सारी मशक्कत बर्दाश्त करने वाले ने कहा: ”बोलो, इस संदूक के माल में से मुझे कितना मिलेगा?“
संदूक पर पहली नजर डालने वाले ने जवाब दिया: ”एक चौथाई।“
”यह तो बहुत कम है।“
”कम बिलकुल नहीं, ज्यादा है.... इसलिए कि सबसे पहले मैंने ही इस माल पर हाथ डाला था।“
”ठीक है, लेकिन यहां तक इस कमरतोड़ बोझ को उठा के लाया कौन है?“
”अच्छा, आधे-आधे पर राजी होते हो?“
”ठीक है...... खोलो संदूक।“
संदूक खोला गया तो उसमें से एक आदमी बाहर निकला। उसके हाथ में तलवार थी - उसने दोनों हिस्सेदारों को चार हिस्सों में तकसीम कर दिया।

गुरुवार, 5 मई 2011

तर्क, विनम्रता और दृढ़ता के योग थे कमला प्रसाद


अच्छे आलोचक, साहित्य सर्जक की उनकी भूमिका परसाई रचनावली और वसुधा जैसे प्रगतिशील प्रकाशन से ही स्पष्ट हो जाती है, लेकिन वे इससे कहीं ज्यादा एक कार्यकर्ता और संगठनकर्ता थे। प्रगतिशील लेखक संघ का पूरे देश में विस्तार इसका उदाहरण है। कैंसर के बावजूद सतत कार्य करते कमला प्रसाद 25 मार्च 2011 को हमसे विदा हो गए। मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव विनीत तिवारी ने उन्हें इन शब्दों में याद किया।


उनसे आप लड़ सकते थे, नाराज हो सकते थे, लेकिन वो लड़ाई और नाराजगी कायम नहीं रह सकती थी। वे आलोचक थे इसलिए विश्लेषण उनका सहज स्वभाव था, साथ ही वे संगठनकर्ता थे इसलिए अपनी आलोचना सुनने, खामियों को दुरुस्त करने और दूसरों को गलतियां सुधारने का भरपूर मौका देने का जबर्दस्त संयम उनके पास था। कोई अगर एक अच्छे कार्यक्रम की अस्पष्ट सी आकांक्षा भी प्रकट कर दे, तो वे उसके सामने संसाधनों के प्रबंध से लेकर वक्ता, विषय आदि का विस्तृत खाका खींच निश्चित कर देते थे कि कार्यक्रम हो। सक्रियता और गतिविधि में उनका गहरा यकीन था। वे कहते भी थे कि अगर कुछ हो रहा है तो उसमें कुछ गलत भी हो सकता है और उसे ठीक भी किया जा सकता है। पूरी तरह पवित्र और सही तो वही बने रह सकते हैं जो कुछ करते ही न हों।
मध्य प्रदेश के प्रगतिशील लेखक संघ का महासचिव होने के नाते मेरा अनेक इकाइयों में जाना हुआ। हर जगह छोटे-बड़े अनेक साहित्यकार उनसे अपने परिचय का जिक्र करते। मुझे देखने का तो मौका नहीं मिला लेकिन कुमार अंबुज, हरिओम, योगेश वगैरह से कितनी ही बार जाना कि उन्होंने संगठनकर्ता के नाते कितनी ही असुविधाजनक यात्राएं कीं। कहीं से इकाई बनाने का संकेत मिलते ही शनिवार-रविवार की छुट्टी में चल देते। रिजर्वेशन तो दूर की बात, सीट न मिलने पर घंटों खड़े रहकर भी संगठन के विस्तार की चाह में दूर-दूर दौड़े जाते थे। वे अपना वैचारिक और सांगठनिक गुरू परसाई जी को कहा करते थे और उन्होंने अपने गुरू के नाम और काम को आगे ही बढ़Þाया। नामवर जी से लेकर होशंगाबाद के गोपीकांत घोष तक उन्हें कमांडर कहते थे। कार्यक्रम की योजना वे कमांडर की ही तरह बनाते भी थे और फिर एक साधारण कार्यकर्ता की तरह काम में हिस्सा भी बंटाते थे, लेकिन कभी शायद ही किसी ने उन्हें आदेशात्मक भाषा में बात करते सुना हो। उल्टे हम कुछ साथियों को तो कई बार कुछ अयोग्य व्यक्तियों के प्रति उनकी उतनी विनम्रता भी बर्दाश्त नहीं होती थी। लेकिन सांस्कृतिक संगठन बनाने का काम तुनकमिजाजी और अक्खड़पन से नहीं, बल्कि तर्क, विनय और दृढ़ता के योग से बनता है, यह सीख हमने उनके काम को देखते-देखते हासिल की। उनको याद करते हुए राजेन्द्र शर्मा की याद न आए, मुमकिन ही नहीं। राजेन्द्र शर्मा ने जैसे उनके काम में जितना हो सके उतना हिस्सा बंटाने को ही अपना मिशन बना लिया था।
कमला प्रसाद की प्रतिष्ठा आलोचक के रूप में, लेखक व संपादक के रूप में खूब रही है। लेकिन मेरा मानना है कि उन्होंने सांगठनिक कार्य का चयन अपनी प्राथमिकता के तौर पर कर लिया था और इसलिए अपनी लेखकीय क्षमताओं के भरपूर दोहन के बारे में वे बहुत सजग कभी नहीं रहे। उनका अपना लेखन, किसी हद तक पठन-पाठन भी, संगठन के रोज के कामों के चलते किसी न किसी तरह प्रभावित होता ही था। फिर भी उन्होंने खूब लिखा। 'वसुधा' में उनके संपादकीय तो अनेक रचनाकारों के लिए राजनीतिक व संस्कृतिकर्म के रिश्तों की बुनियादी शिक्षा, और अनेक के लिए रचनात्मक असहमति व लेखन के लिए उकसावा भी हुआ करते थे। लेकिन वे ऐसे लोगों की बिरादरी में थे, जिन्होंने संगठन के लिए, और नए रचनाकार तैयार करने के लिए अपने खुद के लेखक की महत्त्वाकांक्षा को कहीं पीछे छोड़ दिया था।
प्रगतिशील लेखक संगठन का देश भर में विस्तार। पहले हिन्दी क्षेत्र में संगठन को एक साथ सक्रिय करना, फिर उर्दू के लेखकों से संपर्क और हिन्दी-उर्दू की प्रगतिशील ताकतों को इकट्ठा करना, फिर कश्मीर में, उत्तर-पूर्व में, बंगाल में और दक्षिण भारत में संगठन का आधार तैयार करना, और फिर समान विचार वाले संगठनों से भी संवाद कायम करना, इस सबके साथ-साथ 'वसुधा' का संपादन। दरअसल इतना काम आदमी तब ही कर सकता है, जब उसके सामने एक बड़ा लक्ष्य हो। यह एक बड़े विजन वाले व्यक्ति की कार्यपद्धति थी। अभी एक महीना पहले जब कालीकट, केरल में हम लोग राष्ट्रीय कार्य परिषद की बैठक में साथ में थे, तभी देश भर से आए संगठन के प्रतिनिधियों ने बेहद प्यार और सम्मान के साथ उनका 75वां जन्मदिन वहीं सामूहिक रूप से मनाया था। कैंसर का असर उनके शरीर पर भले ही दिखने लगा था, लेकिन कैंसर उनके मन पर बिल्कुल बेअसर था। वहां बैठक में और बाद में केरल से भोपाल तक के सफर के दौरान उनके पास ढेर सारे सांगठनिक कामों की फेहरिस्त थी, ढेर सारी योजनाएं थीं। सांप्रदायिक और साम्राज्यवादी ताकतों से अपने सांस्कृतिक औजारों से किस तरह मुकाबला किया जाए, किस तरह हम समाजवादी दुनिया के निर्माण में एक ईंट लगाने की अपनी भूमिका ठीक से निभा सकें, यह सोचते उनका मन कभी थकता नहीं था।
उनके जाने से उस पूरी प्रक्रिया में ही एक अवरोध आएगा, जो उन्होंने शुरू की थी। लेकिन हम उम्मीद करें कि देश में उनके जोड़े इतने सारे लेखक मिलकर उसे रुकने नहीं देंगे, आगे बढ़ाएंगे, यही उनके जाने के बाद उन्हें अपने साथ बनाए रखने का तरीका है, और यही उनके प्रति श्रद्धांजलि भी।

- विनीत तिवारी
महासचिव, मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ,
संपर्क: 2, चिनार अपार्टमेंट, 172, श्रीनगर एक्सटेंशन, इन्दौर-452018
मोबाइल: ०९८९३१९२७४०

बुधवार, 4 मई 2011

बोल! अरी, ओ धरती बोल!



बोल! अरी, ओ धरती बोल! राज सिंहासन डाँवाडोल!
बादल, बिजली, रैन अँधियारी, दुख की मारी प्रजा सारी
बूढ़े, बच्चें सब दुखिया हैं, दुखिया नर हैं, दुखिया नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं सब व्यापारी
बोल! अरी, ओ धरती बोल! ...............................................

कलजुग में जग के रखवाले, चाँदी वाले, सोने वाले,
देसी हों या परदेसी हों, नीले पीले गोरे काले
मक्खी भुनगे भिन-भिन करते ढूँढे हैं मकड़ी के जाले,
बोल! अरी, ओ धरती बोल! ...............................................

क्या अफरंगी, क्या तातारी, आँख बची और बरछी मारी!
कब तक जनता की बेचैनी, कब तक जनता की बेजारी,
कब तक सरमाए के धंधे, कब तक यह सरमायादारी,
बोल! अरी, ओ धरती बोल! ...............................................

नामी और मशहूर नहीं हम, लेकिन क्या मजदूर नहीं हम
धोखा और मजदूरों को दें, ऐसे तो मजबूर नहीं हम,
मंजिल अपने पाँव के नीचे, मंजिल से अब दूर नहीं हम,
बोल! अरी, ओ धरती बोल! ...............................................

बोल कि तेरी खिदमत की है, बोल कि तेरा काम किया है,
बोल कि तेरे फल खाये हैं, बोल कि तेरा दूध पिया है,
बोल कि हमने हश्र उठाया, बोल कि हमसे हश्र उठा है,
बोल कि हमसे जागी दुनिया, बोल कि हमसे जागी धरती
बोल! अरी, ओ धरती बोल! ...............................................

-मजाज़ लखनवी
जन्म: 19 अक्तूबर 1911 जन्म स्थान: रुदौली, बाराबंकी

कवि चन्द्रकान्त देवताले को मराठी का प्रतिष्ठित ‘कुसुमाग्रज राष्ट्रीय सम्मान’ दिये जाने पर

कविता को बनते देखा है
रात जब सुबह में बदल रही होती है और धीरे-धीरे आपके आसपास की चीजें अपना काला लिबास छोड़ अपना स्पष्ट आकार और रंग ग्रहण करती हैं, तो वो अनुभव हो चुकी सुबह को देखने के अनुभव के बराबर नहीं, बल्कि अलग होता है। किसी हो चुके को देखना एक अनुभव होता है लेकिन हो चुकने के पहले होने की प्रक्रिया को देखना एक अलग और गाढ़ा अनुभव होता है। शायद इसीलिए नागार्जुन ने घिरे हुए बादल को देखने के बजाय बादल को घिरते देखा।
मेरे लिए देवतालेजी की अनेक कविताएँ उनके बनने की प्रक्रियाओं के दौरान मेरी दोस्त बनीं और इसीलिए वे मेरे लिए उनकी कविता के सामान्य पाठक या आलोचकों के आस्वाद से अधिक या कम भले नहीं, लेकिन थोड़ा अलग मायना ज़रूर रखती हैं। उनसे दोस्ती किसी यत्न से नहीं हुई। दरअसल देवतालेजी की ही एक कविता है जिसमें वे कहते हैं कि एक कवि को एक जासूस की तरह चौकन्ना होना चाहिए। उनकी उस कविता से प्रेरित होकर मैंने उनकी ही कविताओं की जासूसी शुरू कर दी कि वो कहाँ से पैदा होती हैं, कहाँ से भाषा जुटाती हैं और किस तरह के हथियार या फटकार या पुचकार लेकर पाठकों-श्रोताओं से पेश आती हैं।
कविता को बनते देखना किसी चित्रकार को चित्र बनाते देखने से या किसी नाटक के कलाकार को रिहर्सल करते देखने जैसा है भी और नहीं भी। फर्क ये है कि कविता को बनते देखने के लिए आपको दृश्य और दृष्टा, यानी कवि के अदृश्य संबंध को महसूस करना होता है।
एक कवि किसी पड़ोसी के घर नीबू माँगने जाए और नीबू न मिले; घर पर कुछ औरतें चंदा माँगने आएँ और उनसे कवि का सामान्य संवाद हो; दो शहरों के बीच अपनी आवाजाही की मुश्किल को एक कवि अपनी सुविधा की ढाल बना रहा हो; पत्नी नियंत्रित पति की हरकतों को एक कवि चुपचाप कनखियों से देख रहा हो; और फिर कुछ दिनों बाद इन्हीं घटनाओं के इर्द-गिर्द कई बार तो नामजद शिकायतों और उलाहनों के साथ देवतालेजी की कविता प्रकट हो जाती थी। मैंने इन सामान्य हरकतों पर नजर रखतीं एक कवि की जासूसी नजरों की जासूसी की और उनकी कविताओं को इस तरह बनते हुए देखा।
दरअसल कुछ महीनों तक हम दोनों लगभग हर शाम इंदौर में उनके घर पर साथ ही बिताया करते थे। कुमार अंबुज के इंदौर रहने के दौरान शुरू हुई रोज की दोस्ताना बैठकें उनके जाने के बाद देवतालेजी और अजीत चौधरी के इंदौर रहते-रहते तक चलती रहीं। इन बैठकों में अजीत चौधरी, आशुतोष दुबे, विवेक गुप्ता, रवीन्द्र व्यास, जितेन्द्र चौहान, प्रदीप मिश्र, उत्पल बैनर्जी आदि बाकी चेहरे बदलते रहते थे पर हम दो चेहरे वही रहते थे। बातचीत भी कविता तक सीमित नहीं रहती थी। अक्सर सांगठनिक चिंताओं से लेकर साहित्य, समाज और साहित्य की तथाकथित सात्विक और मूर्धन्य विभूतियों की खबर ली जाती रहती थी। उसी बीच कभी कभार भाभी का फोन आ जाता था और देवतालेजी उन्हें ये बताकर कि ‘विनीत यहाँ है,’ एक तरह से उन्हें अपनी ओर से निश्चिंत कर दिया करते थे। उन्होंने शायद ही कभी वैसा कोई अकादमिक व्याख्यान दिया हो जो अपने निर्जीव चरित्र की वजह से कुख्यात होते हैं। साहित्य, पर्यावरण या विकास या राजनीति पर उनका संबोधन हो या कविता-पाठ हो, वो हमेशा आत्मीय और रोचक तरह से हड़बड़ाया सा, लेकिन भरपूर चौकन्नेपन के साथ सीधे दिलों में उतर जाने वाला होता रहा है।
देवतालेजी ने कभी अपनी तरफ से किसी को कुछ सिखाने की कोशिश की हो, ऐसा भी मुझे याद नहीं। वो सामने वाले की समझदारी पर इतना यकीन करते हैं कि जिसे जो सीखना होगा, वो मेरे बगैर सिखाये भी मुझसे सीख जाएगा। उसे ही वो जासूसी कहते हैं। खुद उन्होंने भी ऐसे ही सीखा है। बगैर उनके किसी लंबे-चौड़े व्याख्यान और विश्लेषण के उनसे मैंने जो सीखा, उसमें ये बात अहम है कि कविताओं और जीवन के कद को नापने की क्या युक्तियाँ हो सकती हैं, चाहे वो जीवन और कविताएँ खुद की हों या दूसरों की। मैं जब उनसे मिला तब अपनी कविताओं को फेयर करके कहीं भेजने में उन्हें जाने क्या बाधा खड़ी रहती थी।
उसे आलस्य तो नहीं कहा जा सकता। तमाम ज्ञापन, परिपत्र वे बगैर देर किये अपनी खूबसूरत और बल खाती हैंडराइटिंग में फटाक से लिख देते थे लेकिन कविताएँ....। चार-पाँच मर्तबा तो ऐसा हुआ कि फोन करके मुझे बुलाया कि मेरी कविताएँ फेयर कर दे भैया। मैं इसे अपनी जासूसी सीखने में उनका सकारात्मक योगदान मानता हूँ। कविताएँ फेयर करवाते समय या कोई नयी कविता सुनाते समय वो कभी-कभार राय भी पूछ लिया करते थे। अपनी समझ में जो आया, वो अपन ने कह दिया। उनका मूड हुआ तो माना या न मानने का तर्क बता दिया, वर्ना एकाध तुर्श इशारे से समझा दिया कि ‘‘तुमसे पूछ लिया तो ये मत समझो कि ज्यादा होशियार हो।’’
जो लोग उन्हें जानते हैं, वे ये भी जानते हैं कि उनसे कितनी आजादी ली जा सकती है, ये वो ही तय करते हैं। इसी वजह से एकाध बार आपस में दोस्ताना रस्साकशी भी हो गयी। कुछ महीने बीच में बातचीत बंद हो गयी। फिर अंत में भाभी ने एक दिन बुलाकर दोनों की रस्सी के बल ढीले कर दिए। ऐसे ही उनकी एक कविता ने एक और सीख दी। ‘‘मैं नहीं चाहता कि सब मुझे नमस्कार करें और मेरा कोई दुश्मन न हो।’’सबके लिए भले लगने जैसे काम उन्होंने नहीं किये। बेशक उनकी कविताओं में आयी औरत को पाठकों-आलोचकों ने अधिक लक्ष्य किया हो लेकिन मुझे उनकी सीधी राजनीतिक कार्रवाई के आवेग और आवेश में लिखी गईं कविताओं ने ज्यादा आकर्षित किया। पोखरण विस्फोट के मौके पर तमाम संकोची बुद्धिजीवी साहित्यकारों के बीच वे अगली कतार में थे जब उन्होंने बयान दिया कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि जो मैं कह रहा हूँ, उससे मुझे राष्ट्रविरोधी और देशद्राही माना जा सकता है, लेकिल मैं ये खतरा उठाकर भी कहना चाहताहूँ कि पोखरण के परमाणु परीक्षण जनविरोधी और दो देशों की जनता को युद्ध के उन्माद में धकेलकर विवेकहीन बनाने की शासकों की साजिश है, और मैं इनकी निंदा करता हूँ।’’ उनकी कविता ‘‘दुर्लभ मौका आपने गँवा दिया महामहिम’’ उसी वक्त उनकी लिखी गयी और मेरी प्रिय कविताओं में से एक है।
उनकी लम्बी कविता ‘‘भूखण्ड तप रहा है’’ का करीब सवा घंटे का अनवरत सामूहिक पाठ हम लोगों ने पोखरणविस्फोट के बाद वाले हिरोशिमा दिवस पर किया और एक भी श्रोता अपनी जगह छोड़कर नहीं गया। कभी नर्मदा आंदोलन के आंदोलनकारी इंदौर में धरने पर बैठे तो, या कभी सरकार ने उन्हें दमन करके जेलों में ठूँसा तो, कभी इंदौर में तंग बस्तियों को अतिक्रमण के नाम पर उजाड़ा गया तो, साम्प्रदायिकता के खिलाफ प्रदर्शन हुआ तो, और ऐसे अनेक मौकों पर जब तक देवतालेजी इंदौर रहे, वे हमेशा हमारे साथ रहे। वे कहते भी थे कि बचपन में वे कम्युनिस्ट नेता होमी दाजी के चुनाव प्रचार में परचे बाँटा करते थे। प्रगतिशील लेखक संघ में इंदौर में हम सभी साथियों ने काफी काम किया और 2004 में मध्य प्रदेश का यादगार नवाँ राज्य सम्मेलन भी मुमकिन किया जिसमें ए. के. हंगल, प्रोफेसर रणधीर सिंह, डॉ नामवरसिंह, ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद समेत तमाम हिन्दी के साहित्यकार इकट्ठे हुए। उसके लिए देवतालेजी पूरी जिम्मेदारी के साथ बराबरी से चंदा इकट्ठा करने से लेकर व्यवस्थापन के काम में भी जुटे रहे। यहाँ शायद ये बताना प्रासंगिक होगा कि मेरी और उनकी उम्र में करीब 35 बरस का फासला है। इस फासले का अहसास उन्होंने न काम करते वक्त कभी कराया और न ही मस्ती करते वक्त। बल्कि मस्ती में तो वो मुझसे कमउम्र ही हैं।
उनके बारे में ये नोट मैं सफर के दौरान लिख रहा हूँ और उनकी एक भी कविता की किताब या कविताएँ सिवाय याददाश्त के इस वक्त मेरे पास मौजूद नहीं हैं। फिर भी, मेरे भीतर उनकी कविताओं में मौजूद समुद्र, सेब, चंद्रमा, चाँद जैसी रोटी बेलती माँ, नीबू, बालम ककड़ी बेचतीं लड़कियाँ, नंगे बस्तर को कपड़े पहनाता हाई पॉवर, शर्मिंदा न होने को तैयार महामहिम, पत्थर की बेंच, धरती पर सदियों से कपड़े पछीटती हुई और नहाते हुए रोती हुई औरत, दो बेटियों का पिता, दरद लेती हुई बाई, आशा कोटिया, कमा भाभी, अनु, कनु और चीनू, सबकी याद उमड़ रही है। उनके भीतर मौजूद भूखण्ड की तपन और उसका आयतन, सब उमड़ रहा है। यही मेरे लिए उनकी कविताओं से सच्ची दोस्ती और अच्छी जासूसी का हासिल है।
- विनीत तिवारी

मंगलवार, 3 मई 2011

डा. कमला प्रसाद

डा. कमला प्रसाद - हमें हताश कर गया है उनका जाना


प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव प्रख्यात आलोचक डा. कमला प्रसाद का न रहना हिन्दी-उर्दू साहित्य तथा प्रगतिशील जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन के कार्यकर्ताओं-शुभचिन्तकों के लिए किसी बड़े आघात की तरह है। यह उनकी लोकप्रियता के कारण ही है कि उनके निधन के समाचार से व्यापक साहित्यिक सांस्कृतिक जगत में शोक की लहर दौड़ गयी। शोक की इस बेला में वैचारिक सांगठनिक सीमाएं बेमानी हो गयीं। उन्होंने बहुत कम समय में देश के सुदूर अंचलों तक जो लोकप्रियता अर्जित की थी, कठिन परिश्रम, निरन्तर सक्रियता तथा दृष्टिगत उदारता के बिना वह संभव नहीं है। उदारता जो वैचारिक विचलन का प्रमाण न हो। उन्हें “कमाण्डर” की प्यार भरी उपाधि इसी कारण मिल पायी कि वह सदैव रहनुमाई के लिए तैयार रहते। लक्ष्य की कठिनाई उन्हें हताश नहीं कर पाती। मैंने उन्हें कभी हताश और निराश नहीं देखा। थक कर बैठ जाने की मनः स्थिति में भी वह कभी नहीं दिखे। हालत यह थी कि स्वास्थ्य की चिंता किये बिना वह काम करने को प्राथमिकता देते। दूर की यात्राएं करते।

यहां तक कि अपने रचनाकार व्यक्तित्व की प्राथमिकताओं तक को उन्होंने संगठन व आन्दोलन के विस्तार की चिंता में तिलांजलि दे दी थी। वह प्रखर आलोचक थे, उनकी बुनियादी पहचान आलोचक के रूप में ही थी, इस रूप में उन्होंने कई मूल्यवान कृतियां हिन्दी को दीं। प्रगतिशील लेखक संघ की स्वर्ण जयंती के अवसर पर उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक “प्रगतिशील आलोचना” की मांग आज भी बनी हुई है। ठीक उसी तरह जैसे साहित्य शास्त्र, छायावाद प्रकृति और प्रयोग छायावादोत्तर काव्य की सामाजिक सांस्कृतिक, आधुनिक हिन्दी कविता और आलोचना की द्वन्दात्मकता, समकालीन हिन्दी निबन्ध मध्ययुगीन रचना और मूल्य आलोचक और आलोचना तथा इन जैसी कुछ अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकों से हम उनके योगदान का अनुमान लगा सकते हैं। यह योगदान तब अधिक व्यापक हो जाता है जब हम उनके कुशल सम्पादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका वसुधा के विशेषांकों पर नज़र डालते हैं। समकालीन जीवन के तक़रीबन सभी ज्वलन्त मुद्दों पर उन्होंने यादगार विशेषांक प्रकाशित किये। विभिन्न भाषाओं के साहित्य पर केन्द्रित विशेषांकों की उन्होंने जैसे एक श्रृंखला ही खड़ी कर दी। उर्दू साहित्य पर उन्होंने दो अंक केन्द्रित किये। जिनका व्यापक स्वागत हुआ।

भाषाई संकीर्णता को तोड़ते हुए विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों को साथ लेकर चलने की प्रगतिशील आन्दोलन की गरिमापूर्ण मूल्यवान परम्परा को आगे बढ़ाने में उन्होंने जिस उत्साह का प्रदर्शन किया वह वास्तव में अपूर्व है। जो प्रमाणित करता है कि प्रगतिशीलता की सैद्धांतिकी से प्रतिबद्ध हुए बिना एसेा कर पाना संभव नहीं। यह उनके प्रतिबद्ध व्यक्तित्व का ही चमत्कार था कि दो वर्ष पूर्व बिहार के बेगूसराय जिले के गोदर गोवा में प्रगतिशील लेखक संघ का सफ़ल अधिवेशन सम्पन्न हो सका। जिसमें अनेक भारतीय भाषाओं के साथ ही बंगलादेश के लेखकों का प्रतिनिधिमण्डल भी शरीक हुआ। जनवादी लेखक संघ तथा जनसंस्कृति मंच के प्रतिनिधि भी वहां मौजूद थे। आंचलिक भाषाओं के लेखकों का उस अधिवेशन की ओर आकृष्ट होना एक बड़ी घटना थी, शिथिल पड़ते प्रगतिशील आन्दोलन में उन्होंने अपनी सक्रियता से जैसे नये प्राण फूंक दिये थे। जिसके सबसे ज्यादा उत्तेजक दृश्य मध्य प्रदेश में दिखाई पड़े। वहां के सुदूर अंचलों तक में प्रगतिशील लेखक संघ की न केवल इकाइयां गठित हुई बल्कि उन्होंने अपनी सक्रियता भी बनाये रखी; यहां भी कमला प्रसाद जी की उस सांस्कृतिक समझ का प्रभाव साफ़ देखा जा सकता है, जो स्थानीय - आंचलिक सांस्कृतिक विशिष्टताओं तथा रचनाकारों से गहरे सामंजस्य की सीख देती है। वैचारिक संकीर्णता का अतिक्रमण करते हुए संयुक्त प्रयास-साझा मंच इस सांस्कृतिक समझ का अनिवार्य अंग है। यह तथ्य बहुत लोगों को विस्मित कर सकता है कि प्रगतिशील लेखक संघ के स्वर्ण जयंती आयोजन (अप्रैल 1986) में उर्दू-हिन्दी लेखकों के बीच विवाद व कटुता की स्थिति बन जाने के बावजूद उन्होंने इस घटना के थोड़े दिनों बाद ही भोपाल में फै़ज़ अहमद फै़ज़ परएक भव्य-विचारपूर्ण समारोह आयोजित कर दिखाया; हिन्दी-उर्दू लेखकों का ऐसा शानदार समागम मैंने बहुत कम देखा है। एक ही मंच पर दो भाषाओं के दिग्गजों के बीच पाकिस्तान व दूसरे देशों से आये रचनाकार। यह भी वह ही कर सकते थे कि इतने महत्वपूर्ण आयोजन में उन्होंने मुझ जैसे साधारण व्यक्ति को आलेख प्रस्तुत करने का सम्मान दिया। शिव मंगल सिंह सुमन, त्रिलोचन शास्त्री, मजरूह सुल्तानपुरी भगवत रावत और शफ़ीका फ़रहत की सक्रियता कार्यक्रम को अतिरिक्त गरिमा प्रदान कर रही थी। सज्जाद जहीर की जन्म शताब्दी को भी उन्होंने जिस गहरे आत्मीय भाव से संगठन व आन्दोलन के विस्तार का आधार बनाने का स्वप्न देखा वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। लगातार दो वर्ष तक देश के विभिन्न अंचलों में जन्मशताब्दी आयोजनों का सिलसिला विस्मृति के धुंधलके में जाते सबके प्यारे बन्ने भाई को जैसे नया जीवन दे गया। विभिन्न साहित्यिक सांस्कृतिक मुद्दों पर जीवन्त बहस की वह यादगार बेला थी। इस अवसर पर ‘वसुधा’ के संग्रहणीय विशेषांक का प्रकाशन भी बड़ी घटना के रूप में देखा गया। किसी पत्रिका को सांगठनिक वैचारिक तथा सृजनात्मक उद्देश्यों के पक्ष में समान निष्ठा व उद्वेग से इस्तेमाल करने से ऐसे उदाहरण विरल ही होते हैं। जहां विचार गुणवत्ता को स्खलित नहीं करते नई उठान देते हैं। उन्होंने प्रतिबद्धता के दबाव में पत्रिका की स्तरीयता को कभी प्रभावित नहीं होने दिया। सन् 2011 में पड़ने वाली हिन्दी-उर्दू के कई विद्धानों कवियों की जन्म शताब्दी को लेकर भी वह काफ़ी उत्साहित थे। वसुधा तथा सांगठनिक सर्कुलरों के माध्यम से वह प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े लोगों का इन शताब्दियों को बड़े पैमाने और संयुक्त रूप से आयेाजित करने का आह्वान कर रहे थे। चिंता एक ही थी कैसे ज़्यादा से ज़्यादा व नये आते हुए रचनाकारों को संगठन व आन्दोलन से जोड़ा जाये। कैसे प्रगतिशील आन्दोलन की उपलब्धियों के योगदानों और उससे जुड़ी ऐतिहासिक विभूतियों से नई पीढ़ी को परिचित कराया जा सके और कैसे इस बहाने आज के जरूरी मुद्दों पर सार्थक संवाद-विमर्श संभव हो सके। इस संन्दर्भ में प्रगतिशील आन्दोलन से शुरूआती जुडाव के बाद करीब-करीब उसके विरोधी हो गये उपन्सासकार और कवि हीरानन्द वात्साययन अज्ञेय को साथ जोड़कर चलने की उनकी सलाह का विशेष महत्व है कि अज्ञेय का भी यह जन्म शताब्दी वर्ष हैं इसके विपरीत कलावादियों ने अपने कार्यक्रम फ़ोल्डर में अज्ञेय और शमशेर बहादुर सिंह को ही प्रमुखता दी। कमला प्रसाद ने अपने दृष्टिकोण तथा सक्रियता से साबित किया कि संस्कृति व कला की वास्तविक रक्षा व चिंता प्रगतिशील वजन की नज़रिये के लोग ही कर सकते हैं।

उन्हें एक चिंता लगतार सताती थी कि दक्षिण भारत के रचनाकारों से कैसे उत्तर व पूर्वी भारत के रचनाकारों का जीवन्त संवाद संभव हो सके, कैसे संगठन के राष्ट्रीय अधिवेशन को दक्षिण के किसी राज्य में संभव बनाया जा सके। दो माह पूर्व ही कालीकट में राष्ट्रीय समिति की बैठक तथा आगामी राष्ट्रीय अधिवेशन केरल में ही करने का प्रस्ताव इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ियां है। जुझारू प्रतिबद्धता तथा दृष्टिकोण की व्यापकता वाले ऐसे व्यक्ति का अचानक चिरविदा ले लेना हम सब को हतप्रभ व हताश कर गया है।
- शकील सिद्दीकी
साभार : पार्टी जीवन