शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

आगे साम्प्रदायिकता है

उत्तर प्रदेश में लगातार घट रही साम्प्रदायिक दंगों की वारदातें साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों के तात्कालिक और दीर्घकालिक राजनैतिक उद्देष्यों की पूर्ति के लिए चलाई जा रही उनकी लगातार मुहिम का परिणाम हैं। अपने राजनैतिक उद्देष्यों की पूर्ति के लिए ये ताकतें आगामी लोकसभा चुनाव में वोटों का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना चाहती हैं।
प्रदेष में सत्तारूढ़ दल की दोगली कार्यनीति बार-बार दंगों और दंगाईयों से निपटने में सरकार और प्रषासन की भारी ढिलाई के रूप में हमारे सामने है। बाबरी विध्वंस के बाद अपनी प्रासंगिकता गंवा बैठा संघ परिवार अपनी खोई हुई ताकत और जमीन को फिर से हासिल करने के काम में जुटा है। गोरखपुर, फैजाबाद, वाराणसी, मुरादाबाद, बरेली, मेरठ, सहारनपुर, आगरा, अलीगढ़, कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, झांसी आदि संवेदनषील मंडल इसके निषाने पर हैं। इस बार ग्रामीण क्षेत्रों पर भी फोकस है। अंतर्राष्ट्रीय हालातों और प्रदेष में सत्ता परिवर्तन से उत्साहित अन्य कट्टरपंथी ताकतें भी उकसावे और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही हैं। हाल ही में जन्मी कुछ मुस्लिम राजनीतिक पार्टियां भी साम्प्रदायिक विभाजन के काम में लगी हैं ताकि धर्मनिरपेक्ष ताकतों से अल्पसंख्यक समुदाय को अलग किया जा सके।
इन परिस्थितियों में धर्मनिरपेक्ष ताकतों की जिम्मेदारी बहुत गंभीर है। प्रस्तुत रिपोर्ट से सबक लिया जाना चाहिए। साम्प्रदायिक सौहार्द को कायम रखना और जन-धन की हानि न होने देना हमारा महत्वपूर्ण कार्यभार है।
- कार्यकारी सम्पादक
प्रो. रघुवंशमणि की तथ्यपरक रिपोर्ट
विगत कुछ वर्षों से हमारे तमाम बुद्धिजीवियों ने यह मान लिया है कि साम्प्रदायिकता अब कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं रह गया है। इसके चलते लोगों की राजनीतिक अभिवृत्तियॉं भी बदलीं हैं। जो लोग भारतीय जनता पार्टी और संघ को 2002 के दंगों के बाद एक कट्टरतावादी हिदुत्ववादी पार्टी के रूप में देखते थे, उन्होंने इस पक्ष को उदारवादी दृष्टि की पार्टी के रूप में देखना शुरू कर दिया था। यहॉं तक कि गुजरात दंगों के खलनायक नरेन्द्र मोदी के भी गुणों की चर्चा होने लगी कि आखिर उनके नेतृत्व में कुछ ऐसी बात तो होगी जो गुजरात में विकास ही विकास दिखायी पड़ता है। दूर से गुजरात की असलियत तो किसी को मालूम नहीं। कांग्रेस के नेताओं के तमाम भ्रष्टाचार सम्बन्धी कारनामों के बाद बहुत से मित्र-परिचित भाजपा को भ्रष्टाचार के विकल्प के रूप में देखने लगे थे। अब गडकरी के भ्रष्टाचरण के सामने आने के बाद जरूर उनका भ्रम टूटा होगा। फैज़ाबाद में हाल में हुए साम्प्रदायिक दंगों और आगजनी की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि साम्प्रदायिकता वैसी की वैसी है और उसकी राजनीति भी ज्यों की त्यों।
उत्तर प्रदेश में इधर कुछ दिनों में आये साम्प्रदायिक उभार ने यह सिद्ध किया है कि न तो भाजपा कि दुम सीधी होने वाली है और न ही उसकी साम्प्रदायिक राजनीति बदलने वाली है। संघ और संघनीति में भी कोई परिवर्तन होता नहीं दिखायी देता। दंगों के नाम पर राजनीति करने वाले और भी हैं और उनका उत्तर प्रदेश की सत्ता में भागीदारी भी बरकरार है। सब कुछ यथावत् है और अगर सचेत न हुआ गया तो आगे साम्प्रदायिकता की आग धधकाने वाले तैयार बैठे हैं, प्रयासरत हैं।
उत्तर प्रदेश में इधर कुछ दिनों में साम्प्रदायिकता बढ़ी है। मथुरा जिले में कोसीकलां नामक जगह पर हिंसा हुई जिसमें तीन लोगों के मारे जाने की खबर है। प्रतापगढ़ के नवाबगंज थाना क्षेत्र के अस्थाना गॉंव में हिंसा हुई है। बरेली में कांवर यात्रा के दौरान हिंसा हुई है जिसमें दो लोेग मरे हैं। फिर जन्माष्टमी के दिन भी वहॉं हिंसा हुई। इसी प्रकार गाजियाबाद के मसूरी थाने पर हमला हुआ और छः लोग हिंसा के शिकार हुए। इस सिलसिले को आगे बढ़ाया जाय तो लखनऊ, इलाहाबाद, और कानपुर में भी साम्प्रदायिक हिंसा हुई। बदायूॅं के सहसवा के हिस्से में भी साम्प्रदायिक तनाव हुआ। और अब फैजाबाद तथा बाराबंकी में हिंसा भड़की। ये हिंसा किन कारणों से हुई और किनके द्वारा हुई इसके उत्तर अलग-अलग हैं। इस प्रश्न का कोई खास महत्व इसलिए नहीं क्योंकि साम्प्रदायिकता के झगड़ों में मरने वाला हर व्यक्ति अंततः मनुष्य ही होता है और इसमें होने वाली हर क्षति राष्ट्रीय होती है। मगर इनसे लाभ उन्ही दलों को मिलना है जो साम्प्रदायिकता की राजनीति करते हैं। अतः मनुष्यता के पक्ष में खड़े होने वाले धर्मनिरपेक्ष ताकतों - धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों द्वारा इनका न केवल विरोध आवश्यक है बल्कि प्रदेश के आम जनगण को साम्प्रदायिकता के खिलाफ खड़ा करना भी और उसे सचेत करना भी इन्हीं ताकतों का काम है।
भारतीय जनता पार्टी ने अपने मिशन 2014 के सिलसिले में कई बार यह कहा है कि अयोध्या में राम मन्दिर उसके राजनीतिक एजेण्डे पर बना हुआ है। पार्टी में कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे चेहरों के पुनः दिखायी देने से यह तथ्य पुष्ट होता है। अब यह एक अलग बात है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता अपने शासनकाल के दौरान इस मुद्दे पर लगातार हकलाते रहे थे और इस एजेण्डे से किनारा कसते रहे थे क्योंकि भाजपा के सभी नेताओं को यह पता है कि अदालत में विचाराधीन इस मुद्दे पर वक्तव्य चाहे जो दे लिया जाय, कुछ किया नहीं जा सकता। मगर यदि झूठ बोलने और धर्म के नाम पर जनभावनाएॅं उभारने और दंगा कराने से कुछ राजनीतिक लाभ होता हो तो ऐसा करने में नुकसान क्या है? फिर हिंसा और दंगा होने पर तो वोट का बटवारा सीधा हो जाता है। कम से कम यह तो होता ही है कि हिन्दू लोग हिन्दुत्व की ओर आकर्षित होते हैं। आखिर रामजन्मभूमि आन्दोलन से चली हवा पर ही तो सवार होकर भाजपा शासन में आयी थी। उन्हें यह विश्वास है कि धर्म और राम के नाम पर उन्हें धर्मभीरु हिन्दू अपना ही लेगें। यह विश्वास है या भ्रम - इसका फैसला तो भारत की जनता को ही करना है।
मगर राजनीति किस सीमा तक अधोगामी हो सकती है, उसका एक बड़ा उदाहरण फैजाबाद में भड़के दंगे रहे जिसमें सारा प्रकरण निहायत ही एकपक्षीय दिखाई देता है। यह विचित्र सी बात है कि इस अतिस्पष्ट तथ्य को लोग अनदेखा कर रहे हैं या देखना नहीं चाहते। फैज़ाबाद शहर में जिस प्रकार मुस्लिम व्यापारियों की दुकाने जलायी गयीं, वह इस तथ्य को बिलकुल स्पष्ट करता है। शहर में सिर्फ मुस्लिमों की दुकाने जली हैं और अभी तक जितना नुकसान हुआ है उसका सिर्फ अनुमान भर लगाया जा सकता है। जिन व्यापारियों की दुकानें जलायी गयी हैं उनमें से अधिकांश बड़े व्यापारी थे और इस कारण नुकसान करोड़ों में गया है, संभवतः साढ़े सात करोड़। प्रदेश की समाजवादी सरकार इस हानि की भरपायी करने की बात कर रही है और मुआवजे की एक किस्त दे भी चुकी है। वह इस क्षति की कितनी भरपायी करेगी यह देखने की बात है। अगर वह आर्थिक भरपायी कर भी दे तो उस मनोविज्ञान का वह क्या करेगी जो विषाद में डूबा हुआ है और अपने को बेहद अकेला महसूस कर रहा है। क्या इस घटना से अल्पसंख्यकों का असुरक्षाबोध और नहीं बढ़ जायेगा? क्या ऐसे में इस धर्म में उपस्थित प्रगतिशील वर्ग पुनः अपनी परम्परागत खोल में नहीं चला जाएगा? क्या इससे इस वर्ग की साम्प्रदायिक शक्तियों को अपना खेल खेलने में मदद नहीं मिलेगी? क्या उस संस्कृति को हुई क्षति की भरपायी हो सकेगी जिस पर शहर के सभी सभ्य नागरिकों को गर्व था? क्या हम यह फिर कह पायेंगे कि यह उस आदर्श गंगा-जमुनी संस्कृति का शहर है जिसके जाग्रत विवेक ने शान्ति और सहिष्णुता को संकटों के दौर में भी बचाये रखा है?
दुर्गापूजा के पहले फैज़ाबाद में एक घटना घटित हुई। वह थी देवकाली मंदिर से मूर्तियों की चोरी। इन मूर्तियों की बरामदी के लिए एक आन्दोलन चलाया गया जिसका उद्देश्य मूर्तियों के लिए आन्दोलन के अलावा अपने को एक बार फिर प्रकाश में लाना था। इस आन्दोलन में सारे हिन्दुत्ववादी लोग ही अगुवाई कर रहे थे। यह एक प्रकार का राजनीतिक कार्यक्रम था जिसके माध्यम से राजनीतिक फुटेज हासिल करने का प्रयास किया जा रहा था। इसे गंभीरतापूर्वक नहीं लिया गया क्योंकि प्रथमदृष्टया इसके उद्देश्य तात्कालिक थे। लेकिन इस आन्दोलन के दौरान यह प्रचार किया गया कि ये मूर्तियॉं मुस्लिमों द्वारा चुराई गई हैं। बाद में मूर्तियॉं प्राप्त भी हुई। सौभाग्य से मूर्तियों का चोर एक हिन्दू ही निकला अन्यथा उसी समय कुछ गड़बड़ हो सकती थी। इससे पहले जुलाई माह में मिरजापुर मोहल्ले में एक मस्जिद के परिसर में दीवार उठाने के मामले को लेकर विवाद हुआ था।
दुर्गापूजा के दौरान साम्प्रदायिकता की एक पृष्ठभूमि लगातार बनायी गयी। ध्वनिविस्तारकों पर बजने वाले गीत अक्सर मुस्लिम समुदाय को चिढ़ाने वाले होते थे। उनकी मंशा मुस्लिमों को उत्तेजित करना था। ये गीत उच्च स्वरों में बजाए जाते थे। उदाहरण के लिए ‘‘बनायेगे मंदिर’’, ‘‘राम राम बोल सब अयोध्या में जायेंगे’’ जैसे गीत जिनका दुर्गा या दुर्गा पूजा से कोई मतलब नहीं था। ये गीत साम्प्रदायिक राजनीति के गीत हैं जिनका भक्ति और खासकर दुर्गाभक्ति से कुछ लेना-देना नहीं है। दुर्गापूजा के अवसर पर इस प्रकार के गीतों का कोई मतलब नहीं। इसका बस एक मतलब मुस्लिम समाज को ठेस पहुॅंचाना या उन्हें उत्तेजित करना था। यह एक बहाने की तलाश भर थी कि कहीं कोई कुछ करे तो देख लिया जाय। अक्टूबर 2012 की बाइस तारीख को यानि कि फैज़ाबाद के सारे घटनाक्रम के दो दिन पहले मैंने अपने फेसबुक के पन्ने पर यह संकेत किया था कि इस प्रकार के गीत धार्मिक परपीड़न के उदाहरण हैं। इस प्रकार की गतिविधियों को किस तरह धर्म का नाम दिया जा सकता है, मुझे पता नहीं। इसे तो अधर्म ही कहना उचित है। बताया जाता है कि ये गीत दुर्गापूजा समिति द्वारा वितरित किये गये थे।
इस सब के बाद भी फैज़ाबाद शहर शान्त ही रहा। मगर 24 अक्टूबर को दुर्गापूजा विसर्जन के दौरान कुछ घटित हुआ जिससे फैजाबाद में आगजनी की घटना प्रारम्भ हुई। कथित तौर पर इसे किसी लड़की के साथ छेड़खानी की घटना बताया जाता है जिसका बहाना लेकर सारी कार्यवाही हुई। स्थानीय पुलिस के पास इस घटना की कोई प्राथमिकी नहीं है। वास्तव में यह सब एक सोची-समझी साजिश के तहत हुआ क्योंकि शहर के बीचोबीच स्थित चौक में मिट्टी का तेल, पेट्रोल या पत्थर के ढेर सारे टुकड़े बिना योजनाबद्ध हुए नहीं आ सकते थे। विसर्जन के दौरान चौक और रिकाबगंज के बीच स्थिति रॉयल प्लाजा के पास से ये घटनाएॅं प्रारम्भ हुईं। रायल प्लाजा के निचले भाग में स्थित दुकानों को आग लगाने से शुरुआत हुई। वहीं करीब स्थित कनक टाकिज के आगे वाले हिस्से में कपड़े की दुकानों में आग लगायी गयी। ये दुकाने अस्थायी थीं। फिर उसी पटरी पर स्थित कई स्थायी दुकानों को जलाया गया जो मुस्लिमों से सम्बन्धित थीं। चौक में स्थित जूतों की मशहूर दूकान शहाब बूट हाउस को लूटा गया और फिर उसमें आग लगायी गयी जो जलकर खाक हो गयी। चौक के दक्षिण में स्थित कुछ दुकानों में आग लगायी गयी। फिर दंगायी चौक की मस्जिद में घुस गये और तोड़फोड़ की। वहॉं मस्जिद की सम्पत्ति को नुकसान पहुॅंचाया गया और वहॉं स्थित दुकानों को जलाया गया। मस्जिद के ऊपर स्थित उर्दू अखबार के एक दफ्तर को क्षति पहुॅंचायी गयी। यह दफ्तर सम्पादक/पत्रकार मंज़र मेहदी का है जो ”आपकी ताकत“ नामक एक द्विभाषीय हिन्दी-उर्दू अखबार निकालते हैं। यह अखबार हिन्दू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देता है। बगल स्थित सब्जीमंडी की भी कुछ दुकानों को जलाया गया। मस्जिद के बगल में स्थित स्टार बेकरी को भी पत्थरों से क्षतिग्रस्त किया गया। चौक के पश्चिम में स्थित एक दरे के नीचे की दूकानों को भी जलाया गया।
यह उपद्रव शाम से देर रात तक चलता रहा। इस बात पर विश्वास करना कठिन है कि छेड़छाड़ की घटना को लेकर इस प्रकार का लम्बा और व्यवस्थित उपद्रव संभव है। यह कोई स्वतः स्फूर्त घटना नहीं है। यह एक घृणित और सुनियोजित साजिश थी। समय रहते कार्यवाही न कर जिला प्रशासन ने इस पूरे घटनाचक्र को साजिशकर्ताओं के अनुसार होने दिया। दूसरे दिन सुबह प्रशासन की ही लापरवाही के चलते फिर पत्थरबाजी हुई। प्रशासन को रात में ही चौक की परिस्थितियों को देखते हुए सुरक्षा व्यवस्था रखनी चाहिए थी। मगर कर्फ्यू तब लगाया गया जब उत्तेजित भीड़ ने समाजवादी पार्टी के स्थानीय विधायक पवन पाण्डेय पर हमला करने की कोशिश की। बाद में प्रशासन सख्त हुआ लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।
25 और 26 की रात को अफवाहों का बाजार गर्म रहा। तब हरकत में आया। जगह-जगह पुलिस, पीएसी, अर्धसैनिक कमांडो, एटीएस और एसटीएफ के जवान तैनात किये गये थे। प्रशासन ने मुस्लिमों से बस स्टेशन के पास स्थित ईदगाह पर सामूहिक नमाज पढ़ने के बजाय अपने-अपने इलाकों में नमाज अदा करने का अनुरोध किया जिसे मुस्लिम नागरिकों ने मान लिया। इसी प्रकार प्रशासन ने संक्षिप्त रामलीला करायी और रावण के पुतलों को अपनी उपस्थिति में जलवाया। पूरे समय में एकमात्र आगजनी की घटना साकेत स्टेशनरी की दुकान पर हुई जिसे दुकान के पीछे लगी खिड़की को तोड़कर किया गया। इस घटना से काफी आर्थिक क्षति हुई। मगर इसके अलावा और कोई घटना नहीं घटित हुई। 6 नवम्बर को कुछ युवकों की गिरफ्तारी को लेकर पुलिस द्वारा एक मस्जिद में प्रवेश को लेकर शहर में फिर तनाव का माहौल बना मगर प्रशासन ने तेजी से चौक में चौकसी कायम की और किसी अप्रिय घटना को नहींे होने दिया। मस्जिद से जुड़े लोगों का यह कहना था कि पुलिस ने मस्जिद के अंदर कुछ सामानों को क्षति पहुॅंचायी है।
चौक फैज़ाबाद शहर का हृदय है। शहर के बीचोबीच स्थित यह हिस्सा दुकानों से भरा हुआ है और बेहद सघन है। सामान्य स्थितियों में यहॉं सुबह से लेकर देर रात तक लोग टहलते-घूमते और चाय पीते रहते हैं। रात देर तक मिठाइयों और चाय के ठेले खड़े रहते हैं। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद आन्दोलन के दौर से ही चौक में हर समय पुलिस की उपस्थिति रहती है। ऐसे स्थान पर आगजनी की घटनाएॅं खुले आम अंजाम दी गयीं और पुलिस चुपचाप देखती रही। इसके भी निहितार्थ स्थानीय धर्मनिरपेक्ष नागरिकों को निकालने चाहिये। वैसे तर्क यह दिया गया कि इतनी भारी भीड़ पर पुलिस के कुछ लोग कैसे नियंत्रण कर सकते थे? मगर आज के सूचना विस्फोट के दौर में क्या पुलिस अपने वायरलेस या फोन से सूचना देकर और पुलिस बल नहीं बुला सकती थी। चौक में जहॉं ये घटनाएॅं घट रही थीं वहॉं से दो-तीन सौ मीटर की दूरी पर कोतवाली है और दो किलोमीटर से भी कम की दूरी पर शहर का पुलिस लाइन स्थित है। आम नागरिकों का यह शक सही भी हो सकता है कि घटनास्थल पर उपस्थित पुलिस ने दंगाइयों का साथ दिया। आखिर पुलिस की निरपेक्षता का यही तो मतलब निकलेगा। बाद में एडीजी कानून व्यवस्था जगमोहन यादव ने यह स्वीकार किया कि सारा कुछ प्रशासन के निकम्मेपन के कारण हुआ। कुछ लोग इस बात को मुद्दा बनाते हैं कि दुर्गाभक्त नशे में धुत्त थे और प्रशासन इसलिए भी दोषी है कि उस दिन शहर में शराब की दुकानें खुली थीं। वास्तव में उन्हें बंद होना चाहिए था। उसी बीच एडीएम सिटी श्रीकांत मिश्र, एसपी सिटी रामजी यादव, तिलकधारी यादव और भुल्लन यादव को राज्य सरकार ने लापरवाही बरतने के कारण निलम्बित कर दिया।
मगर ये बातें इस तथ्य से हमारा ध्यान नहीं हटा सकतीं कि यह सारा घटनाक्रम योजनाबद्ध साजिश था। इसमें मुस्लिम दुकानों को ही निशाना बनाया गया। पड़ोसी होने का खामियाजा कुछ हिन्दू दुकानदारों को भी भुगतना पड़ा। एक-दो हिन्दूओं की दुकानें भी लपटों से क्षतिग्रस्त हुईं जो मुस्लिम दुकानों के अगल-बगल थीं। आग तो हिन्दू और मुस्लिम में भेद तो नहीं करती और न ही उसे साजिश के क्रम में ही हरकत करने के लिए नियंत्रित किया जा सकता है। इस समूचे घटनाक्रम को कुछ सतर्क नागरिकों ने विडियोक्लिपों में कैद भी किया है जिसमें जलती दुकानों के सामने कुछ दंगाई जयश्रीराम बोलते नजर आते हैं। मस्जिद के अंदर लगे क्लोज सर्किट कैमरे में भी बहुत उपद्रवियों की तस्वीरें कैद हैं। इनमें वे काफी निश्चिंत दिखायी देते हैं और उन्हें किसी भी प्रकार से प्रशासन का कोई भय नहीं है। लेकिन ये वीडियो क्लिप्स उन्हें जेल तक ले जा सकती हैं। अद्यतन सूचना यह है कि पुलिस ने पूरे फैज़ाबाद जिले में 85 लोगों को गिरफ्तार भी किया है। बाद में प्रकाश में आये वीडियो क्लिप्स के नकली और फर्जी होने की बात कही जा रही है। फोरेंसिक जॉंच में ये बातें स्पष्ट हो सकती हैं।
फैज़ाबाद के साम्प्रदायिक उपद्रवों से कुछ रेखांकित करने योग्य तथ्य सामने आये हैं।
साम्प्रदायिकता को फैलाने के लिए जिस युक्ति का इस्तेमाल लगभग हर जगह देखने को मिला वह था मुस्लिम धर्मानुयायियों को किसी तरह से उत्तेजित करना। इस कार्य के लिए अबीर का प्रयोग किया गया। मुस्लिम लोगों और मुस्लिम धर्मस्थलों पर अबीर फेककर यह कार्य किया गया। उदाहरण के लिए चौक में स्थित मस्जिद पर अबीर दिखायी दी। भदरसा, रुदौली जैसी जगहों पर भी यह प्रयोग किया गया। फैज़ाबाद में पूरा उपद्रव एकतरफा रहा क्योंकि यहॉं लोग या तो उत्तेजित ही नहीं हुए या फिर वे उपद्रव के स्थानों पर थे ही नहीं। मगर अन्य जगहों पर उन्हें उत्तेजित किया गया और टकराव की स्थितियॉं भी आयीं। मुस्लिम धर्म की संवेदनशीलता को लेकर किया गया यह प्रयोग ज्यादा सफल नहीं रहा। धर्मनिरपेक्ष तत्वों को यह विचार करना चाहिए कि किस प्रकार इन प्रयोगों को निष्फल किया जाय।
साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोगों ने भीड़-भाड़ के समय का उपयोग किया ताकि प्रशासन के लिए कार्यवाही कर पाना संभव न हो। चौक यातायात की दृष्टि से बेहद समस्याग्रस्त रहता है क्योंकि यहॉं सड़क काफी संकरी है और सामान्य स्थितियों में भी यहॉं से गुजरना कठिन हो जाता है। दुर्गापूजा के अवसर पर यहॉं बहुत भीड़ हो जाती है और किसी प्रकार की प्रशासनिक कार्यवाही कठिन हो जाती है। इस बात को देखते हुए आगे के आने वाले त्यौहारों में प्रशासन को सचेत रहना चाहिए। कायदे से तो होना यह चाहिए कि चौक में किसी प्रकार के धार्मिक या राजनीतिक कार्यक्रमों पर रोक हो क्योंकि यह जगह काफी संकरी है। 18वीं शताब्दी के इसके निर्माण काल के समय फैज़ाबाद की जनसंख्या बहुत कम थी। अब यह जनसंख्या दस गुने से भी ज्यादा है। चौक में भारी वाहनों का प्रवेश पहले से ही वर्जित है। तो सवाल यह है कि प्रशासन द्वारा यहॉं धार्मिक और राजनीतिक कार्यक्रमों को क्यों नहीं वर्जित किया जाता। दुर्गापूजा के मार्ग को बदलना जरूरी है ताकि इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके।
जैसा पहले कहा जा चुका है प्रशासन के लिए जो संभव कार्यवाही थी वह नहीं की गयी। उदाहरण के लिए फैजाबाद में चौक क्षेत्र जहॉं उपद्रव हुए वहॉं से कुछ सौ मीटर की दूरी पर कोतवाली है और 2 किलोमीटर के भीतर ही पुलिस लाईन है। मगर वहॉं से कोई भी मदद नहीं पहुॅंची। वहॉं अतिसीमित मात्रा मे पुलिस थी। अग्निशामकों का सही प्रयोग न हो सका क्योंकि उनमे पानी ही नहीं था। सवाल यह जरूर उठता है कि तत्काल पानी भरे अग्निशामकों का उपयोग क्यों नहीं किया गया और क्यों वाटरलाईनों में बनाये जाने वाले प्वाइंट्स को प्रयोग में लाने के प्रयास नहीं किये गये। बाद में दुकानों में लग चुकी आग को बुझाना और मुश्किल हो गया। दुकानों में आग सुबह तक सुलगती रही।
रात में आगजनी की इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद भी सुबह तक चौक में सुरक्षा का कोई इन्तजाम नहीं था। कफर््यू की घोषणा भी तब हुई जब क्रोधित भीड़ ने शहर के विधायक पवन पाण्डे पर आपना आक्रोष जाहिर किया और उन्हें वहॉं से भाग जाना पड़ा। प्रशासन की निष्क्रियता आलोचना का विषय है। बाद में एडीजी ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया कि प्रशासन की ओर से लापरवाही हुई। इस प्रकार की प्रशासनिक निष्क्रियता के अलग-अलग अर्थ लगाये जा रहे हैं। लम्बा समय बीतने के बाद फैज़ाबाद के जिलाधिकारी दीपक अग्रवाल और वरिष्ठ आरक्षी अधीक्षक रमेश शर्मा हटाये गये। उसके पीछे की भी अलग कहानी है।
इलेक्ट्रानिक मीडिया ने फैज़बाद की घटनाओं को नोटिस में नहीं लिया। मीडिया के चैनल्स उन दिनों गडकरी और वाड्रा के प्रसंगों को लेकर चटखारे मार रहे थे। उन्हें इस मानवीय त्रासदी से कुछ लेना-देना नहीं था। अखबारों में छपने वाले समाचार नयी व्यवस्था के चलते फैजाबाद तक में ही सीमित रह जाते थे। बस्ती जैसे करीबी शहर में केवल संक्षिप्त सूचनाएॅं मिलती थीं।
साम्प्रदायिकता को भड़काने के लिए अफवाहों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया गया। उदाहरण के लिए तनाव की घटनाओं को तोड़-मरोड़कर और बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया। कुछ लोगों ने भदरसा में हिन्दुओं की सामूहिक हत्याओं की अफवाह फैलायी तो कुछ ने हिन्दू गॉवों के बीच स्थिति मुस्लिम गॉंवों के खात्में का प्रचार किया। वास्तव में दोनों बातें सच्चाई से कोई सम्बन्ध नहीं रखती थीं। दोनों समुदाय के लोगों को चाहिए कि किसी भी अपुष्ट और भ्रामक सूचनाओं को सही न मानें और शान्ति बनाए रखें।
फैज़ाबाद में हुए साम्प्रदायिक उपद्रव इस ओर स्पष्ट संकेत करते हैं कि हमारे समाज और राजनीति से साम्प्रदायिकता समाप्त नहीं हुई है। फैज़ाबाद जैसे शान्तिप्रिय शहर में दंगों का होना एक बुरा संकेत है क्योंकि यह शहर बड़ी विपरीत परिस्थितियों में भी शान्त और संयत रहा है। ऐसे में हमें यह जान लेना चाहिए कि आगे साम्प्रदायिकता की राजनीति खड़ी है जिसके रास्ते में हिंसा ही हिंसा है। मिशन 2014 में साम्प्रदायिक राजनीति हावी हो सकती है और वह अपार जन और धन की हानि की ओर ले जा सकती है, यदि उसका ठीक से मुकाबला न किया गया। निश्चित रूप से हमें साम्प्रदायिकता से विभिन्न स्तरों पर निपटना पड़ेगा। समाज, संस्कृति और राजनीति इन तीनों स्तर पर संघर्ष किये बिना उसे पराजित या कमजोर कर पाना संभव न होगा। धर्मनिरपेक्षता तब तक साम्प्रदायिकता पर विजय न प्राप्त कर सकेगी जब तक उसकी संस्कृति को जनसामान्य तक न पहुॅंचाया जाय। यह कार्य धर्मनिरपेक्ष राजनीति अकेले नहीं कर सकती, इसके लिए साहित्य, नाटक, कला और संस्कृति के लोगों को भी जुटना होगा। इस अर्थ में राजनीतिज्ञों के अतिरिक्त बुद्धिजीवियों, विचारकों, लेखको और संस्कृतिकर्मियों की महती साम्प्रदायिकता विरोधी भूमिका बनती है।
- प्रो. रघुवंशमणि

शनिवार, 17 नवंबर 2012

गर्म हवा के निर्देशक एम.एस. सथ्यू से पवन मेराज़ की बातचीत

पवन मेराज : गर्म हवा 1974 में रिलीज हुई, आज गर्म हवा की क्या प्रासंगिकता है ?
एम.एस.सथ्यू: कभी-कभी ऐसी फिल्में बन जाती है जो अपने मायने कभी नहीं खोतीं। वैसे भी आजकल हम धर्म जाति, और क्षेत्रीयता को लेकर अधिक संकीर्ण होकर सोचने लगे हैं। इन सब सच्चाइयों को देखते हुए गर्म हवा की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
पवन: ऐसे समय में कला की समाज के प्रति क्या जिम्मेदारी बनती है।
सथ्यू: समाज के यथार्थ को सामने लाना ही कला की मुख्य जिम्मेदारी हैं। मैं इस बात का हामी नहीं कि कला सिर्फ कला के लिये होती है। कला के सामाजिक सरोकार होते हैं।
पवन: लेकिन व्यवसायिक सिनेमा भी तो यथार्थ को अपनी तरह से सामने लाता है फिर समानांतर सिनेमा इससे अलग कैसे ?
सथ्यू: वे बेसिकली पैसा बनाते हैं। उनके लिये समस्याएं भी बिकाऊ माल हैं। गरीबी से लेकर विधवा के आंसू तक के हर संेटीमेंट को वे एक्सप्लाइट करते हैं। समस्याओं को देखने का नजरिया, समाज के प्रति कमिटमेण्ट और समानांतर सिनेमा का ट्रीटमेंट ही इसे व्यावसायिक सिनेमा से अलग करता है।
पवन: अपने ट्रीटमेंट में गर्म हवा कैसे अलग है ?
सथ्यू: देखिये पहली बात हो हम एक विचारधारा से जुड़े हुए लोग थे इसीलिये यह फिल्म बन पायी। ‘पूरी फिल्म इस्मत चुगताई की एक कहानी से प्रभावित है। एक पात्र राजिंदर सिंह बेदी की कहानी से भी प्रेरित था। आपको हैरानी होगी पूरी फिल्म आगरा और फतेहपुर सीकरी में शूट की गयी। इसमें बनावटी चीज कुछ भी नहीं है। आज इस तरह सोचना भी मुश्किल है। आज की फिल्मों में बहुत बनावटीपन है। कहानी हिन्दुस्तान की होती है शूटिंग विदेश में... (हँसते हैं) शादियाँ तो ऐसे दिखाई जाती हैं गोया सारी शादियाँ पंजाबी शादियों की तरह ही होती हैं। इस फिल्म में दृश्यों की अर्थवत्ता और स्वाभाविकता को बनाये रखने के लिये कम से कम सोलह ऐसे सीन हैं जिसमें एक भी कट नहीं है। कैमरे के कलात्मक मूवमेंट द्वारा ही यह सम्भव हो सका। आज के निर्देशक ऐसा नहीं करते।
पवन: बिना कट किये पूरा सीन फिल्माना तो कलाकारों के लिये भी चुनौती रही होगी ?
सथ्यू: वे सब थियेटर के मंजे हुए कलाकार थे जिन्हें डायलाग से लेकर हर छोटी से छोटी बात याद रहती थी... यहां तक भी कितने कदम चलना है और कब घूमना है...रंगमंच का अनुभव कलाकारों को परिपक्व बना देता है। इसलिये कभी कोई दिक्कत पेशन नहीं आयी।
पवन: इस फिल्म के उस मार्मिक सीन में जब नायिका मर जाती है तो पिता के रोल में बलराज साहनी की आँखों से कोई आँसू नहीं गिरता यह बात दुख को और बढ़ा देती है ?
सथ्यू: असल में बलराज जी की जिंदगी में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। उनकी एक बेटी ने आत्महत्या कर ली थी। बलराज उस शूटिंग से लौट कर आये थे और उन्होंने कुछ इसी तरह सीढ़ियाँ चढ़ी थीं जैसा फिल्म में था। बलराज उस समय इतने अवसन्न हो गये थे कि रो भी नहीं पाये। उस वक्त उनसे पारिवारिक रिश्तों के चलते मैं वहीं था। फिल्म बनाते समय मेरे जेहन में वहीं घटना थी पर मैं बलराज जी से सीधे-सीधे नहीं कह सकता था इसलिये मैंने सिर्फ इतना कहा कि आपको इस सीन में रोना नहीं है.. बलराज समझ गये और उन्होंने जो किया था आपके सामने है।
पवन: इस फिल्म का अंत भी बहुत सकारात्मक था ?
सथ्यू: दरअसल यह भी बलराज जी का ही योगदान था। उन्होंने ही इस तरह के अंत को सुझाया। वे बहुत समर्थ कलाकार थे। ‘दो बीघा जमीन’, ‘गर्म हवा’ और दूसरी कई फिल्मों में अपने शानदार अभिनय के बावजूद उन्हें कभी नेशनल अवार्ड नहीं मिला तो सिर्फ इसलिये क्योंकि वे कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर थे। हम डेमोक्रेसी में रहते हैं और फिर भी ऐसी बातें हो जाया करती हैं।
पवन: फिल्म रिलीज होने के बाद खुद बलराज जी की क्या प्रतिक्रिया थी ?
सथ्यू: दुर्भाग्य से वो यह फिल्म रिलीज होने तक जिंदा नहीं रहे। फिल्म के अंत में जब वे कहते कि मै। इस तरह अब अकेला नहीं जी सकता और संघर्ष करती जनता के लाल झण्डे वाले जुलूस में शामिल हो जाते हैं यह उनके अभिनय जीवन का भी अंतिम शॉट था।
पवन: एक कलाकार की राजनैतिक भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं ?
सथ्यू: जी हाँ, बिलकुल ! कोई भी चीज राजनीति से अलग नहीं है। कलाकार का भी एक राजनीतिक कमिटमेंट होता है और उनकी कला में भी दिखता भी है। अगर कोई यह कहता है कि उसका राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है तो वह अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है।
पवन: कला, समाज को प्रभावित करती है लेकिन समाज, कला को किस तरह प्रभावित करता है?
सथ्यू: मैं दोनों को अलग करके नहीं देखता। समाज के तत्कालीन प्रश्न ही कलाकृति का आधार बनते हैं। वे बुराइयाँ हैं जिन्हें हम लंबे समय से स्वीकार करते आ रहे हैं, एक कलाकार उन्हेे अपनी कला के जरिये समाज के सामने दुबारा खोलकर रखता है और अपने प्रेक्षक को उन पर सोचने को मजबूर कर देता है।
पवन: 70 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी मूवमेंट के उभार से लगभग हर कला, साहित्य और फिल्म प्रभावित रही, ‘इप्टा’ जैसा सांस्कृतिक आंदोलन भी चला। लेकिन अब वह उतार पर नजर आता है। ऐसा क्यों?
सथ्यू: देखिये, जहां तक मूवमेंट का सवाल है। इसने हमें एक सपना दिया- ‘बेहतर दुनिया का सपना’। हम सब इससे प्रभावित थे। मैंने पहले भी कहा आंदोलन से जुड़े होने के कारण ही हम लोग ‘गर्म हवा’ बना सके। लेकिन यह ग्लोबलाइजेशन का दौर है और हम बदलती परिस्थितियों के हिसाब से खुद को नया नहीं बना सके, इसीलिये ऐसा हुआ। मार्क्स ने भी कहा था-यह परिवर्तन का दर्शन है। हमें इस तरफ भी सोचना होगा।
पवन: लेकिन आज आंदोलन की हर धारा इस पर विचार कर रही है और नित नए प्रयोग हो रहे हैं। नेपाल में माओवादियों का प्रयोग आपके सामने है।
सथ्यू: हाँ, वहाँ कुछ बातें अच्छी हैं। आज कल के जमाने में माओविस्ट रेवोल्यूशन को कंडेम किया जाता है.... लेफ्ट के लोगों ने भी किया है। नक्सलाइट आज भी है। उनकी भी एक आइडियालॉजी है। कहा जाता हैकि वे काफी ंिहंसक भी हो जाते हैं। लेकिन माओवादियों की सरकार के साथ बैठक और उसमें हिस्सा लेने से बहुत फर्क पड़ा है।
पवन: ‘गर्म हवा’ जैसी समानांतर धारा की फिल्में क्या आपको नहीं लगता कि एक विशेष वर्ग में सिमट कर रह जाती हैं। क्या इनका फैलाव आम जनता तक नहीं होना चाहिये ?
सथ्यू: होना चाहिये, यह जरूरी है। लेकिन एक लंबे दौर तक ऐसा हो पाएगा, ऐसा कह पाना संभव नहीं है। फिलहाल ऐसा नहीं हो सकता। साहित्य में भी नहीं होता। घटिया साहित्य ज्यादा छपता और पढ़ा जाता है। मल्टीप्लैक्स में ‘वैलकम’ जैसी फिल्म देखने वाले ऐसी फिल्म नहीं देख सकते। फिल्म देखना भी एक कला है जिसके लिये आँखें होनी चाहिये। इसकी ट्रेनिंग शुरू से ही लोगों को दी जानी चाहिये।
पवन: समानांतर सिनेमा के सामने आज कौन सी चुनौतियाँ हैं ?
सथ्यू: फिल्म बनाना एक महंगा काम है। इसके लिये स्पॉन्सर और प्रोत्साहन की जरूरत होती है। ‘लगान’ की चर्चा ऑस्कर में आने की वजह से भी हुई और इसकी टीम ने फिल्म को वहां प्रदर्शित करने में करोड़ों रूपये फूँक दिए, जिसमें एक नई फिल्म बन सकती थी। मजे की बात यह है कि ‘लगान’ के पास ऑस्कर में नामांकन का वही सर्टिफिकेट है जो ‘गर्म हवा’ को उससे 30-35 साल पहले मिला था। यह फिल्म कान फेस्टिवल में भी दिखाई गई और तब ऑस्कर के चयनकर्ताओं ने इसे ऑस्कर समारोह में दिखाने को कहा। मैं सिर्फ पैसे की तंगी के चलते वहाँ नहीं जा सका। हाँ, मैंने फिल्म भेज दी और इसका सर्टिफिकेट मेरे पास पड़ा है।
पवन: क्या पैसे की तंगी ने फिल्म बनाने की प्रक्रिया में बाधा डाली ?
सथ्यू: फिल्में सिर्फ पैसे से नहीं, पैशन से बनती हैं। (मुस्कराते हैं) लेकिन पैसा भी चाहिये। उस जमाने में 2.5 लाख निगेटिव बनने में लगा। हमारे पास साउंड रिकॉर्डिंग का सामान मुंबई से आता था और उसके साथ एक आदमी भी। इसका 150 रू0 प्रतिदिन का खर्च था और हमारे पास इतने भी नहीं थे। अंततः सारी शूटिंग बिना साउंड रिकार्डिंग के ही हुई। फिल्म बाद में बंबई जाकर डब की गई। तकरीबन 9 लाख कुल खर्चा आया, पूरी फिल्म में। कई कलाकारों को मैं उनका मेहनताना भी नहीं दे सका... मेरे ऊपर बहुत सा कर्जा हो गया और नौ साल लगे इससे उबरने में।
 पवन : इसके अलावा और क्या-क्या समस्याएँ आईं ?
 सथ्यू: खुद की तारीफ नहीं करना चाहिये। लेकिन कहूँगा कि बेहतरीन फिल्म बनी थी और मैं समझता हूँ  कि समाज पर भी सकारात्मक प्रभाव डालती। लेकिन शुरूआत में रिलीज के लिये इसे सेंसर सर्टिफिकेट नहीं मिला। कहा गया इससे समाज में तनाव फैल सकता है... इस बकवास पर कोई माथा ही पीट सकता था क्योंकि उस समय तमाम लोग कुछ ऐसा कर रहे थे जो समाज पर बुरा प्रभाव डाल रहा था। एक साल की जद्दोजहद के बाद इंदिराजी ने जब खुद पूरी फिल्म देखी और कहा रिलीज कर दो... तब ही इसका रिलीज संभव हो पाया... लेकिन यू.पी. में नहीं। (मुस्कराते हैं)...वहाँ चुनाव होने वाले थे। इस तरह 1973 में तैयार फिल्म 74 में सबसे पहले बंगलौर में रिलीज हो सकी।
 पवन: आप रंगमंच में काफी सक्रिय रहे। फिल्म और रंगमंच में आप मुख्यतः क्या अंतर पाते हैं ?
 सथ्यू: अपनी बात कहने की दो अलग-अलग विधाएं हैं...कैमरे की वजह से काफी सहूलियत हो जाती है लेकिन रंगमंच एक संस्कार है। यहां कलाकार और दर्शक का तादात्म्य स्थापित होता है। यह विधा बहुत पुरानी है और कभी नहीं मरेगी।
 पवन : आपकी दूसरी फिल्मों को ‘गर्म हवा’ जितनी चर्चा नहीं मिली ?
 सथ्यू : ‘गर्म हवा’ जैसी फिल्म कोई रोज नहीं बना सकता... ऐसी फिल्में बस बन जाती हैं कभी-कभी। ‘पाथेर पांचाली, सुवर्ण रेखा’ जैसी फिल्में हमेशा नहीं बन सकतीं।
पवन मेराज़ मो. 09179371433
(‘‘प्रगतिशील वसुधा’’ से साभार)