शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

आगे साम्प्रदायिकता है

उत्तर प्रदेश में लगातार घट रही साम्प्रदायिक दंगों की वारदातें साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों के तात्कालिक और दीर्घकालिक राजनैतिक उद्देष्यों की पूर्ति के लिए चलाई जा रही उनकी लगातार मुहिम का परिणाम हैं। अपने राजनैतिक उद्देष्यों की पूर्ति के लिए ये ताकतें आगामी लोकसभा चुनाव में वोटों का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना चाहती हैं।
प्रदेष में सत्तारूढ़ दल की दोगली कार्यनीति बार-बार दंगों और दंगाईयों से निपटने में सरकार और प्रषासन की भारी ढिलाई के रूप में हमारे सामने है। बाबरी विध्वंस के बाद अपनी प्रासंगिकता गंवा बैठा संघ परिवार अपनी खोई हुई ताकत और जमीन को फिर से हासिल करने के काम में जुटा है। गोरखपुर, फैजाबाद, वाराणसी, मुरादाबाद, बरेली, मेरठ, सहारनपुर, आगरा, अलीगढ़, कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, झांसी आदि संवेदनषील मंडल इसके निषाने पर हैं। इस बार ग्रामीण क्षेत्रों पर भी फोकस है। अंतर्राष्ट्रीय हालातों और प्रदेष में सत्ता परिवर्तन से उत्साहित अन्य कट्टरपंथी ताकतें भी उकसावे और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही हैं। हाल ही में जन्मी कुछ मुस्लिम राजनीतिक पार्टियां भी साम्प्रदायिक विभाजन के काम में लगी हैं ताकि धर्मनिरपेक्ष ताकतों से अल्पसंख्यक समुदाय को अलग किया जा सके।
इन परिस्थितियों में धर्मनिरपेक्ष ताकतों की जिम्मेदारी बहुत गंभीर है। प्रस्तुत रिपोर्ट से सबक लिया जाना चाहिए। साम्प्रदायिक सौहार्द को कायम रखना और जन-धन की हानि न होने देना हमारा महत्वपूर्ण कार्यभार है।
- कार्यकारी सम्पादक
प्रो. रघुवंशमणि की तथ्यपरक रिपोर्ट
विगत कुछ वर्षों से हमारे तमाम बुद्धिजीवियों ने यह मान लिया है कि साम्प्रदायिकता अब कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं रह गया है। इसके चलते लोगों की राजनीतिक अभिवृत्तियॉं भी बदलीं हैं। जो लोग भारतीय जनता पार्टी और संघ को 2002 के दंगों के बाद एक कट्टरतावादी हिदुत्ववादी पार्टी के रूप में देखते थे, उन्होंने इस पक्ष को उदारवादी दृष्टि की पार्टी के रूप में देखना शुरू कर दिया था। यहॉं तक कि गुजरात दंगों के खलनायक नरेन्द्र मोदी के भी गुणों की चर्चा होने लगी कि आखिर उनके नेतृत्व में कुछ ऐसी बात तो होगी जो गुजरात में विकास ही विकास दिखायी पड़ता है। दूर से गुजरात की असलियत तो किसी को मालूम नहीं। कांग्रेस के नेताओं के तमाम भ्रष्टाचार सम्बन्धी कारनामों के बाद बहुत से मित्र-परिचित भाजपा को भ्रष्टाचार के विकल्प के रूप में देखने लगे थे। अब गडकरी के भ्रष्टाचरण के सामने आने के बाद जरूर उनका भ्रम टूटा होगा। फैज़ाबाद में हाल में हुए साम्प्रदायिक दंगों और आगजनी की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि साम्प्रदायिकता वैसी की वैसी है और उसकी राजनीति भी ज्यों की त्यों।
उत्तर प्रदेश में इधर कुछ दिनों में आये साम्प्रदायिक उभार ने यह सिद्ध किया है कि न तो भाजपा कि दुम सीधी होने वाली है और न ही उसकी साम्प्रदायिक राजनीति बदलने वाली है। संघ और संघनीति में भी कोई परिवर्तन होता नहीं दिखायी देता। दंगों के नाम पर राजनीति करने वाले और भी हैं और उनका उत्तर प्रदेश की सत्ता में भागीदारी भी बरकरार है। सब कुछ यथावत् है और अगर सचेत न हुआ गया तो आगे साम्प्रदायिकता की आग धधकाने वाले तैयार बैठे हैं, प्रयासरत हैं।
उत्तर प्रदेश में इधर कुछ दिनों में साम्प्रदायिकता बढ़ी है। मथुरा जिले में कोसीकलां नामक जगह पर हिंसा हुई जिसमें तीन लोगों के मारे जाने की खबर है। प्रतापगढ़ के नवाबगंज थाना क्षेत्र के अस्थाना गॉंव में हिंसा हुई है। बरेली में कांवर यात्रा के दौरान हिंसा हुई है जिसमें दो लोेग मरे हैं। फिर जन्माष्टमी के दिन भी वहॉं हिंसा हुई। इसी प्रकार गाजियाबाद के मसूरी थाने पर हमला हुआ और छः लोग हिंसा के शिकार हुए। इस सिलसिले को आगे बढ़ाया जाय तो लखनऊ, इलाहाबाद, और कानपुर में भी साम्प्रदायिक हिंसा हुई। बदायूॅं के सहसवा के हिस्से में भी साम्प्रदायिक तनाव हुआ। और अब फैजाबाद तथा बाराबंकी में हिंसा भड़की। ये हिंसा किन कारणों से हुई और किनके द्वारा हुई इसके उत्तर अलग-अलग हैं। इस प्रश्न का कोई खास महत्व इसलिए नहीं क्योंकि साम्प्रदायिकता के झगड़ों में मरने वाला हर व्यक्ति अंततः मनुष्य ही होता है और इसमें होने वाली हर क्षति राष्ट्रीय होती है। मगर इनसे लाभ उन्ही दलों को मिलना है जो साम्प्रदायिकता की राजनीति करते हैं। अतः मनुष्यता के पक्ष में खड़े होने वाले धर्मनिरपेक्ष ताकतों - धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों द्वारा इनका न केवल विरोध आवश्यक है बल्कि प्रदेश के आम जनगण को साम्प्रदायिकता के खिलाफ खड़ा करना भी और उसे सचेत करना भी इन्हीं ताकतों का काम है।
भारतीय जनता पार्टी ने अपने मिशन 2014 के सिलसिले में कई बार यह कहा है कि अयोध्या में राम मन्दिर उसके राजनीतिक एजेण्डे पर बना हुआ है। पार्टी में कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे चेहरों के पुनः दिखायी देने से यह तथ्य पुष्ट होता है। अब यह एक अलग बात है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता अपने शासनकाल के दौरान इस मुद्दे पर लगातार हकलाते रहे थे और इस एजेण्डे से किनारा कसते रहे थे क्योंकि भाजपा के सभी नेताओं को यह पता है कि अदालत में विचाराधीन इस मुद्दे पर वक्तव्य चाहे जो दे लिया जाय, कुछ किया नहीं जा सकता। मगर यदि झूठ बोलने और धर्म के नाम पर जनभावनाएॅं उभारने और दंगा कराने से कुछ राजनीतिक लाभ होता हो तो ऐसा करने में नुकसान क्या है? फिर हिंसा और दंगा होने पर तो वोट का बटवारा सीधा हो जाता है। कम से कम यह तो होता ही है कि हिन्दू लोग हिन्दुत्व की ओर आकर्षित होते हैं। आखिर रामजन्मभूमि आन्दोलन से चली हवा पर ही तो सवार होकर भाजपा शासन में आयी थी। उन्हें यह विश्वास है कि धर्म और राम के नाम पर उन्हें धर्मभीरु हिन्दू अपना ही लेगें। यह विश्वास है या भ्रम - इसका फैसला तो भारत की जनता को ही करना है।
मगर राजनीति किस सीमा तक अधोगामी हो सकती है, उसका एक बड़ा उदाहरण फैजाबाद में भड़के दंगे रहे जिसमें सारा प्रकरण निहायत ही एकपक्षीय दिखाई देता है। यह विचित्र सी बात है कि इस अतिस्पष्ट तथ्य को लोग अनदेखा कर रहे हैं या देखना नहीं चाहते। फैज़ाबाद शहर में जिस प्रकार मुस्लिम व्यापारियों की दुकाने जलायी गयीं, वह इस तथ्य को बिलकुल स्पष्ट करता है। शहर में सिर्फ मुस्लिमों की दुकाने जली हैं और अभी तक जितना नुकसान हुआ है उसका सिर्फ अनुमान भर लगाया जा सकता है। जिन व्यापारियों की दुकानें जलायी गयी हैं उनमें से अधिकांश बड़े व्यापारी थे और इस कारण नुकसान करोड़ों में गया है, संभवतः साढ़े सात करोड़। प्रदेश की समाजवादी सरकार इस हानि की भरपायी करने की बात कर रही है और मुआवजे की एक किस्त दे भी चुकी है। वह इस क्षति की कितनी भरपायी करेगी यह देखने की बात है। अगर वह आर्थिक भरपायी कर भी दे तो उस मनोविज्ञान का वह क्या करेगी जो विषाद में डूबा हुआ है और अपने को बेहद अकेला महसूस कर रहा है। क्या इस घटना से अल्पसंख्यकों का असुरक्षाबोध और नहीं बढ़ जायेगा? क्या ऐसे में इस धर्म में उपस्थित प्रगतिशील वर्ग पुनः अपनी परम्परागत खोल में नहीं चला जाएगा? क्या इससे इस वर्ग की साम्प्रदायिक शक्तियों को अपना खेल खेलने में मदद नहीं मिलेगी? क्या उस संस्कृति को हुई क्षति की भरपायी हो सकेगी जिस पर शहर के सभी सभ्य नागरिकों को गर्व था? क्या हम यह फिर कह पायेंगे कि यह उस आदर्श गंगा-जमुनी संस्कृति का शहर है जिसके जाग्रत विवेक ने शान्ति और सहिष्णुता को संकटों के दौर में भी बचाये रखा है?
दुर्गापूजा के पहले फैज़ाबाद में एक घटना घटित हुई। वह थी देवकाली मंदिर से मूर्तियों की चोरी। इन मूर्तियों की बरामदी के लिए एक आन्दोलन चलाया गया जिसका उद्देश्य मूर्तियों के लिए आन्दोलन के अलावा अपने को एक बार फिर प्रकाश में लाना था। इस आन्दोलन में सारे हिन्दुत्ववादी लोग ही अगुवाई कर रहे थे। यह एक प्रकार का राजनीतिक कार्यक्रम था जिसके माध्यम से राजनीतिक फुटेज हासिल करने का प्रयास किया जा रहा था। इसे गंभीरतापूर्वक नहीं लिया गया क्योंकि प्रथमदृष्टया इसके उद्देश्य तात्कालिक थे। लेकिन इस आन्दोलन के दौरान यह प्रचार किया गया कि ये मूर्तियॉं मुस्लिमों द्वारा चुराई गई हैं। बाद में मूर्तियॉं प्राप्त भी हुई। सौभाग्य से मूर्तियों का चोर एक हिन्दू ही निकला अन्यथा उसी समय कुछ गड़बड़ हो सकती थी। इससे पहले जुलाई माह में मिरजापुर मोहल्ले में एक मस्जिद के परिसर में दीवार उठाने के मामले को लेकर विवाद हुआ था।
दुर्गापूजा के दौरान साम्प्रदायिकता की एक पृष्ठभूमि लगातार बनायी गयी। ध्वनिविस्तारकों पर बजने वाले गीत अक्सर मुस्लिम समुदाय को चिढ़ाने वाले होते थे। उनकी मंशा मुस्लिमों को उत्तेजित करना था। ये गीत उच्च स्वरों में बजाए जाते थे। उदाहरण के लिए ‘‘बनायेगे मंदिर’’, ‘‘राम राम बोल सब अयोध्या में जायेंगे’’ जैसे गीत जिनका दुर्गा या दुर्गा पूजा से कोई मतलब नहीं था। ये गीत साम्प्रदायिक राजनीति के गीत हैं जिनका भक्ति और खासकर दुर्गाभक्ति से कुछ लेना-देना नहीं है। दुर्गापूजा के अवसर पर इस प्रकार के गीतों का कोई मतलब नहीं। इसका बस एक मतलब मुस्लिम समाज को ठेस पहुॅंचाना या उन्हें उत्तेजित करना था। यह एक बहाने की तलाश भर थी कि कहीं कोई कुछ करे तो देख लिया जाय। अक्टूबर 2012 की बाइस तारीख को यानि कि फैज़ाबाद के सारे घटनाक्रम के दो दिन पहले मैंने अपने फेसबुक के पन्ने पर यह संकेत किया था कि इस प्रकार के गीत धार्मिक परपीड़न के उदाहरण हैं। इस प्रकार की गतिविधियों को किस तरह धर्म का नाम दिया जा सकता है, मुझे पता नहीं। इसे तो अधर्म ही कहना उचित है। बताया जाता है कि ये गीत दुर्गापूजा समिति द्वारा वितरित किये गये थे।
इस सब के बाद भी फैज़ाबाद शहर शान्त ही रहा। मगर 24 अक्टूबर को दुर्गापूजा विसर्जन के दौरान कुछ घटित हुआ जिससे फैजाबाद में आगजनी की घटना प्रारम्भ हुई। कथित तौर पर इसे किसी लड़की के साथ छेड़खानी की घटना बताया जाता है जिसका बहाना लेकर सारी कार्यवाही हुई। स्थानीय पुलिस के पास इस घटना की कोई प्राथमिकी नहीं है। वास्तव में यह सब एक सोची-समझी साजिश के तहत हुआ क्योंकि शहर के बीचोबीच स्थित चौक में मिट्टी का तेल, पेट्रोल या पत्थर के ढेर सारे टुकड़े बिना योजनाबद्ध हुए नहीं आ सकते थे। विसर्जन के दौरान चौक और रिकाबगंज के बीच स्थिति रॉयल प्लाजा के पास से ये घटनाएॅं प्रारम्भ हुईं। रायल प्लाजा के निचले भाग में स्थित दुकानों को आग लगाने से शुरुआत हुई। वहीं करीब स्थित कनक टाकिज के आगे वाले हिस्से में कपड़े की दुकानों में आग लगायी गयी। ये दुकाने अस्थायी थीं। फिर उसी पटरी पर स्थित कई स्थायी दुकानों को जलाया गया जो मुस्लिमों से सम्बन्धित थीं। चौक में स्थित जूतों की मशहूर दूकान शहाब बूट हाउस को लूटा गया और फिर उसमें आग लगायी गयी जो जलकर खाक हो गयी। चौक के दक्षिण में स्थित कुछ दुकानों में आग लगायी गयी। फिर दंगायी चौक की मस्जिद में घुस गये और तोड़फोड़ की। वहॉं मस्जिद की सम्पत्ति को नुकसान पहुॅंचाया गया और वहॉं स्थित दुकानों को जलाया गया। मस्जिद के ऊपर स्थित उर्दू अखबार के एक दफ्तर को क्षति पहुॅंचायी गयी। यह दफ्तर सम्पादक/पत्रकार मंज़र मेहदी का है जो ”आपकी ताकत“ नामक एक द्विभाषीय हिन्दी-उर्दू अखबार निकालते हैं। यह अखबार हिन्दू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देता है। बगल स्थित सब्जीमंडी की भी कुछ दुकानों को जलाया गया। मस्जिद के बगल में स्थित स्टार बेकरी को भी पत्थरों से क्षतिग्रस्त किया गया। चौक के पश्चिम में स्थित एक दरे के नीचे की दूकानों को भी जलाया गया।
यह उपद्रव शाम से देर रात तक चलता रहा। इस बात पर विश्वास करना कठिन है कि छेड़छाड़ की घटना को लेकर इस प्रकार का लम्बा और व्यवस्थित उपद्रव संभव है। यह कोई स्वतः स्फूर्त घटना नहीं है। यह एक घृणित और सुनियोजित साजिश थी। समय रहते कार्यवाही न कर जिला प्रशासन ने इस पूरे घटनाचक्र को साजिशकर्ताओं के अनुसार होने दिया। दूसरे दिन सुबह प्रशासन की ही लापरवाही के चलते फिर पत्थरबाजी हुई। प्रशासन को रात में ही चौक की परिस्थितियों को देखते हुए सुरक्षा व्यवस्था रखनी चाहिए थी। मगर कर्फ्यू तब लगाया गया जब उत्तेजित भीड़ ने समाजवादी पार्टी के स्थानीय विधायक पवन पाण्डेय पर हमला करने की कोशिश की। बाद में प्रशासन सख्त हुआ लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।
25 और 26 की रात को अफवाहों का बाजार गर्म रहा। तब हरकत में आया। जगह-जगह पुलिस, पीएसी, अर्धसैनिक कमांडो, एटीएस और एसटीएफ के जवान तैनात किये गये थे। प्रशासन ने मुस्लिमों से बस स्टेशन के पास स्थित ईदगाह पर सामूहिक नमाज पढ़ने के बजाय अपने-अपने इलाकों में नमाज अदा करने का अनुरोध किया जिसे मुस्लिम नागरिकों ने मान लिया। इसी प्रकार प्रशासन ने संक्षिप्त रामलीला करायी और रावण के पुतलों को अपनी उपस्थिति में जलवाया। पूरे समय में एकमात्र आगजनी की घटना साकेत स्टेशनरी की दुकान पर हुई जिसे दुकान के पीछे लगी खिड़की को तोड़कर किया गया। इस घटना से काफी आर्थिक क्षति हुई। मगर इसके अलावा और कोई घटना नहीं घटित हुई। 6 नवम्बर को कुछ युवकों की गिरफ्तारी को लेकर पुलिस द्वारा एक मस्जिद में प्रवेश को लेकर शहर में फिर तनाव का माहौल बना मगर प्रशासन ने तेजी से चौक में चौकसी कायम की और किसी अप्रिय घटना को नहींे होने दिया। मस्जिद से जुड़े लोगों का यह कहना था कि पुलिस ने मस्जिद के अंदर कुछ सामानों को क्षति पहुॅंचायी है।
चौक फैज़ाबाद शहर का हृदय है। शहर के बीचोबीच स्थित यह हिस्सा दुकानों से भरा हुआ है और बेहद सघन है। सामान्य स्थितियों में यहॉं सुबह से लेकर देर रात तक लोग टहलते-घूमते और चाय पीते रहते हैं। रात देर तक मिठाइयों और चाय के ठेले खड़े रहते हैं। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद आन्दोलन के दौर से ही चौक में हर समय पुलिस की उपस्थिति रहती है। ऐसे स्थान पर आगजनी की घटनाएॅं खुले आम अंजाम दी गयीं और पुलिस चुपचाप देखती रही। इसके भी निहितार्थ स्थानीय धर्मनिरपेक्ष नागरिकों को निकालने चाहिये। वैसे तर्क यह दिया गया कि इतनी भारी भीड़ पर पुलिस के कुछ लोग कैसे नियंत्रण कर सकते थे? मगर आज के सूचना विस्फोट के दौर में क्या पुलिस अपने वायरलेस या फोन से सूचना देकर और पुलिस बल नहीं बुला सकती थी। चौक में जहॉं ये घटनाएॅं घट रही थीं वहॉं से दो-तीन सौ मीटर की दूरी पर कोतवाली है और दो किलोमीटर से भी कम की दूरी पर शहर का पुलिस लाइन स्थित है। आम नागरिकों का यह शक सही भी हो सकता है कि घटनास्थल पर उपस्थित पुलिस ने दंगाइयों का साथ दिया। आखिर पुलिस की निरपेक्षता का यही तो मतलब निकलेगा। बाद में एडीजी कानून व्यवस्था जगमोहन यादव ने यह स्वीकार किया कि सारा कुछ प्रशासन के निकम्मेपन के कारण हुआ। कुछ लोग इस बात को मुद्दा बनाते हैं कि दुर्गाभक्त नशे में धुत्त थे और प्रशासन इसलिए भी दोषी है कि उस दिन शहर में शराब की दुकानें खुली थीं। वास्तव में उन्हें बंद होना चाहिए था। उसी बीच एडीएम सिटी श्रीकांत मिश्र, एसपी सिटी रामजी यादव, तिलकधारी यादव और भुल्लन यादव को राज्य सरकार ने लापरवाही बरतने के कारण निलम्बित कर दिया।
मगर ये बातें इस तथ्य से हमारा ध्यान नहीं हटा सकतीं कि यह सारा घटनाक्रम योजनाबद्ध साजिश था। इसमें मुस्लिम दुकानों को ही निशाना बनाया गया। पड़ोसी होने का खामियाजा कुछ हिन्दू दुकानदारों को भी भुगतना पड़ा। एक-दो हिन्दूओं की दुकानें भी लपटों से क्षतिग्रस्त हुईं जो मुस्लिम दुकानों के अगल-बगल थीं। आग तो हिन्दू और मुस्लिम में भेद तो नहीं करती और न ही उसे साजिश के क्रम में ही हरकत करने के लिए नियंत्रित किया जा सकता है। इस समूचे घटनाक्रम को कुछ सतर्क नागरिकों ने विडियोक्लिपों में कैद भी किया है जिसमें जलती दुकानों के सामने कुछ दंगाई जयश्रीराम बोलते नजर आते हैं। मस्जिद के अंदर लगे क्लोज सर्किट कैमरे में भी बहुत उपद्रवियों की तस्वीरें कैद हैं। इनमें वे काफी निश्चिंत दिखायी देते हैं और उन्हें किसी भी प्रकार से प्रशासन का कोई भय नहीं है। लेकिन ये वीडियो क्लिप्स उन्हें जेल तक ले जा सकती हैं। अद्यतन सूचना यह है कि पुलिस ने पूरे फैज़ाबाद जिले में 85 लोगों को गिरफ्तार भी किया है। बाद में प्रकाश में आये वीडियो क्लिप्स के नकली और फर्जी होने की बात कही जा रही है। फोरेंसिक जॉंच में ये बातें स्पष्ट हो सकती हैं।
फैज़ाबाद के साम्प्रदायिक उपद्रवों से कुछ रेखांकित करने योग्य तथ्य सामने आये हैं।
साम्प्रदायिकता को फैलाने के लिए जिस युक्ति का इस्तेमाल लगभग हर जगह देखने को मिला वह था मुस्लिम धर्मानुयायियों को किसी तरह से उत्तेजित करना। इस कार्य के लिए अबीर का प्रयोग किया गया। मुस्लिम लोगों और मुस्लिम धर्मस्थलों पर अबीर फेककर यह कार्य किया गया। उदाहरण के लिए चौक में स्थित मस्जिद पर अबीर दिखायी दी। भदरसा, रुदौली जैसी जगहों पर भी यह प्रयोग किया गया। फैज़ाबाद में पूरा उपद्रव एकतरफा रहा क्योंकि यहॉं लोग या तो उत्तेजित ही नहीं हुए या फिर वे उपद्रव के स्थानों पर थे ही नहीं। मगर अन्य जगहों पर उन्हें उत्तेजित किया गया और टकराव की स्थितियॉं भी आयीं। मुस्लिम धर्म की संवेदनशीलता को लेकर किया गया यह प्रयोग ज्यादा सफल नहीं रहा। धर्मनिरपेक्ष तत्वों को यह विचार करना चाहिए कि किस प्रकार इन प्रयोगों को निष्फल किया जाय।
साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोगों ने भीड़-भाड़ के समय का उपयोग किया ताकि प्रशासन के लिए कार्यवाही कर पाना संभव न हो। चौक यातायात की दृष्टि से बेहद समस्याग्रस्त रहता है क्योंकि यहॉं सड़क काफी संकरी है और सामान्य स्थितियों में भी यहॉं से गुजरना कठिन हो जाता है। दुर्गापूजा के अवसर पर यहॉं बहुत भीड़ हो जाती है और किसी प्रकार की प्रशासनिक कार्यवाही कठिन हो जाती है। इस बात को देखते हुए आगे के आने वाले त्यौहारों में प्रशासन को सचेत रहना चाहिए। कायदे से तो होना यह चाहिए कि चौक में किसी प्रकार के धार्मिक या राजनीतिक कार्यक्रमों पर रोक हो क्योंकि यह जगह काफी संकरी है। 18वीं शताब्दी के इसके निर्माण काल के समय फैज़ाबाद की जनसंख्या बहुत कम थी। अब यह जनसंख्या दस गुने से भी ज्यादा है। चौक में भारी वाहनों का प्रवेश पहले से ही वर्जित है। तो सवाल यह है कि प्रशासन द्वारा यहॉं धार्मिक और राजनीतिक कार्यक्रमों को क्यों नहीं वर्जित किया जाता। दुर्गापूजा के मार्ग को बदलना जरूरी है ताकि इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके।
जैसा पहले कहा जा चुका है प्रशासन के लिए जो संभव कार्यवाही थी वह नहीं की गयी। उदाहरण के लिए फैजाबाद में चौक क्षेत्र जहॉं उपद्रव हुए वहॉं से कुछ सौ मीटर की दूरी पर कोतवाली है और 2 किलोमीटर के भीतर ही पुलिस लाईन है। मगर वहॉं से कोई भी मदद नहीं पहुॅंची। वहॉं अतिसीमित मात्रा मे पुलिस थी। अग्निशामकों का सही प्रयोग न हो सका क्योंकि उनमे पानी ही नहीं था। सवाल यह जरूर उठता है कि तत्काल पानी भरे अग्निशामकों का उपयोग क्यों नहीं किया गया और क्यों वाटरलाईनों में बनाये जाने वाले प्वाइंट्स को प्रयोग में लाने के प्रयास नहीं किये गये। बाद में दुकानों में लग चुकी आग को बुझाना और मुश्किल हो गया। दुकानों में आग सुबह तक सुलगती रही।
रात में आगजनी की इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद भी सुबह तक चौक में सुरक्षा का कोई इन्तजाम नहीं था। कफर््यू की घोषणा भी तब हुई जब क्रोधित भीड़ ने शहर के विधायक पवन पाण्डे पर आपना आक्रोष जाहिर किया और उन्हें वहॉं से भाग जाना पड़ा। प्रशासन की निष्क्रियता आलोचना का विषय है। बाद में एडीजी ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया कि प्रशासन की ओर से लापरवाही हुई। इस प्रकार की प्रशासनिक निष्क्रियता के अलग-अलग अर्थ लगाये जा रहे हैं। लम्बा समय बीतने के बाद फैज़ाबाद के जिलाधिकारी दीपक अग्रवाल और वरिष्ठ आरक्षी अधीक्षक रमेश शर्मा हटाये गये। उसके पीछे की भी अलग कहानी है।
इलेक्ट्रानिक मीडिया ने फैज़बाद की घटनाओं को नोटिस में नहीं लिया। मीडिया के चैनल्स उन दिनों गडकरी और वाड्रा के प्रसंगों को लेकर चटखारे मार रहे थे। उन्हें इस मानवीय त्रासदी से कुछ लेना-देना नहीं था। अखबारों में छपने वाले समाचार नयी व्यवस्था के चलते फैजाबाद तक में ही सीमित रह जाते थे। बस्ती जैसे करीबी शहर में केवल संक्षिप्त सूचनाएॅं मिलती थीं।
साम्प्रदायिकता को भड़काने के लिए अफवाहों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया गया। उदाहरण के लिए तनाव की घटनाओं को तोड़-मरोड़कर और बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया। कुछ लोगों ने भदरसा में हिन्दुओं की सामूहिक हत्याओं की अफवाह फैलायी तो कुछ ने हिन्दू गॉवों के बीच स्थिति मुस्लिम गॉंवों के खात्में का प्रचार किया। वास्तव में दोनों बातें सच्चाई से कोई सम्बन्ध नहीं रखती थीं। दोनों समुदाय के लोगों को चाहिए कि किसी भी अपुष्ट और भ्रामक सूचनाओं को सही न मानें और शान्ति बनाए रखें।
फैज़ाबाद में हुए साम्प्रदायिक उपद्रव इस ओर स्पष्ट संकेत करते हैं कि हमारे समाज और राजनीति से साम्प्रदायिकता समाप्त नहीं हुई है। फैज़ाबाद जैसे शान्तिप्रिय शहर में दंगों का होना एक बुरा संकेत है क्योंकि यह शहर बड़ी विपरीत परिस्थितियों में भी शान्त और संयत रहा है। ऐसे में हमें यह जान लेना चाहिए कि आगे साम्प्रदायिकता की राजनीति खड़ी है जिसके रास्ते में हिंसा ही हिंसा है। मिशन 2014 में साम्प्रदायिक राजनीति हावी हो सकती है और वह अपार जन और धन की हानि की ओर ले जा सकती है, यदि उसका ठीक से मुकाबला न किया गया। निश्चित रूप से हमें साम्प्रदायिकता से विभिन्न स्तरों पर निपटना पड़ेगा। समाज, संस्कृति और राजनीति इन तीनों स्तर पर संघर्ष किये बिना उसे पराजित या कमजोर कर पाना संभव न होगा। धर्मनिरपेक्षता तब तक साम्प्रदायिकता पर विजय न प्राप्त कर सकेगी जब तक उसकी संस्कृति को जनसामान्य तक न पहुॅंचाया जाय। यह कार्य धर्मनिरपेक्ष राजनीति अकेले नहीं कर सकती, इसके लिए साहित्य, नाटक, कला और संस्कृति के लोगों को भी जुटना होगा। इस अर्थ में राजनीतिज्ञों के अतिरिक्त बुद्धिजीवियों, विचारकों, लेखको और संस्कृतिकर्मियों की महती साम्प्रदायिकता विरोधी भूमिका बनती है।
- प्रो. रघुवंशमणि

शनिवार, 17 नवंबर 2012

गर्म हवा के निर्देशक एम.एस. सथ्यू से पवन मेराज़ की बातचीत

पवन मेराज : गर्म हवा 1974 में रिलीज हुई, आज गर्म हवा की क्या प्रासंगिकता है ?
एम.एस.सथ्यू: कभी-कभी ऐसी फिल्में बन जाती है जो अपने मायने कभी नहीं खोतीं। वैसे भी आजकल हम धर्म जाति, और क्षेत्रीयता को लेकर अधिक संकीर्ण होकर सोचने लगे हैं। इन सब सच्चाइयों को देखते हुए गर्म हवा की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
पवन: ऐसे समय में कला की समाज के प्रति क्या जिम्मेदारी बनती है।
सथ्यू: समाज के यथार्थ को सामने लाना ही कला की मुख्य जिम्मेदारी हैं। मैं इस बात का हामी नहीं कि कला सिर्फ कला के लिये होती है। कला के सामाजिक सरोकार होते हैं।
पवन: लेकिन व्यवसायिक सिनेमा भी तो यथार्थ को अपनी तरह से सामने लाता है फिर समानांतर सिनेमा इससे अलग कैसे ?
सथ्यू: वे बेसिकली पैसा बनाते हैं। उनके लिये समस्याएं भी बिकाऊ माल हैं। गरीबी से लेकर विधवा के आंसू तक के हर संेटीमेंट को वे एक्सप्लाइट करते हैं। समस्याओं को देखने का नजरिया, समाज के प्रति कमिटमेण्ट और समानांतर सिनेमा का ट्रीटमेंट ही इसे व्यावसायिक सिनेमा से अलग करता है।
पवन: अपने ट्रीटमेंट में गर्म हवा कैसे अलग है ?
सथ्यू: देखिये पहली बात हो हम एक विचारधारा से जुड़े हुए लोग थे इसीलिये यह फिल्म बन पायी। ‘पूरी फिल्म इस्मत चुगताई की एक कहानी से प्रभावित है। एक पात्र राजिंदर सिंह बेदी की कहानी से भी प्रेरित था। आपको हैरानी होगी पूरी फिल्म आगरा और फतेहपुर सीकरी में शूट की गयी। इसमें बनावटी चीज कुछ भी नहीं है। आज इस तरह सोचना भी मुश्किल है। आज की फिल्मों में बहुत बनावटीपन है। कहानी हिन्दुस्तान की होती है शूटिंग विदेश में... (हँसते हैं) शादियाँ तो ऐसे दिखाई जाती हैं गोया सारी शादियाँ पंजाबी शादियों की तरह ही होती हैं। इस फिल्म में दृश्यों की अर्थवत्ता और स्वाभाविकता को बनाये रखने के लिये कम से कम सोलह ऐसे सीन हैं जिसमें एक भी कट नहीं है। कैमरे के कलात्मक मूवमेंट द्वारा ही यह सम्भव हो सका। आज के निर्देशक ऐसा नहीं करते।
पवन: बिना कट किये पूरा सीन फिल्माना तो कलाकारों के लिये भी चुनौती रही होगी ?
सथ्यू: वे सब थियेटर के मंजे हुए कलाकार थे जिन्हें डायलाग से लेकर हर छोटी से छोटी बात याद रहती थी... यहां तक भी कितने कदम चलना है और कब घूमना है...रंगमंच का अनुभव कलाकारों को परिपक्व बना देता है। इसलिये कभी कोई दिक्कत पेशन नहीं आयी।
पवन: इस फिल्म के उस मार्मिक सीन में जब नायिका मर जाती है तो पिता के रोल में बलराज साहनी की आँखों से कोई आँसू नहीं गिरता यह बात दुख को और बढ़ा देती है ?
सथ्यू: असल में बलराज जी की जिंदगी में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। उनकी एक बेटी ने आत्महत्या कर ली थी। बलराज उस शूटिंग से लौट कर आये थे और उन्होंने कुछ इसी तरह सीढ़ियाँ चढ़ी थीं जैसा फिल्म में था। बलराज उस समय इतने अवसन्न हो गये थे कि रो भी नहीं पाये। उस वक्त उनसे पारिवारिक रिश्तों के चलते मैं वहीं था। फिल्म बनाते समय मेरे जेहन में वहीं घटना थी पर मैं बलराज जी से सीधे-सीधे नहीं कह सकता था इसलिये मैंने सिर्फ इतना कहा कि आपको इस सीन में रोना नहीं है.. बलराज समझ गये और उन्होंने जो किया था आपके सामने है।
पवन: इस फिल्म का अंत भी बहुत सकारात्मक था ?
सथ्यू: दरअसल यह भी बलराज जी का ही योगदान था। उन्होंने ही इस तरह के अंत को सुझाया। वे बहुत समर्थ कलाकार थे। ‘दो बीघा जमीन’, ‘गर्म हवा’ और दूसरी कई फिल्मों में अपने शानदार अभिनय के बावजूद उन्हें कभी नेशनल अवार्ड नहीं मिला तो सिर्फ इसलिये क्योंकि वे कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर थे। हम डेमोक्रेसी में रहते हैं और फिर भी ऐसी बातें हो जाया करती हैं।
पवन: फिल्म रिलीज होने के बाद खुद बलराज जी की क्या प्रतिक्रिया थी ?
सथ्यू: दुर्भाग्य से वो यह फिल्म रिलीज होने तक जिंदा नहीं रहे। फिल्म के अंत में जब वे कहते कि मै। इस तरह अब अकेला नहीं जी सकता और संघर्ष करती जनता के लाल झण्डे वाले जुलूस में शामिल हो जाते हैं यह उनके अभिनय जीवन का भी अंतिम शॉट था।
पवन: एक कलाकार की राजनैतिक भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं ?
सथ्यू: जी हाँ, बिलकुल ! कोई भी चीज राजनीति से अलग नहीं है। कलाकार का भी एक राजनीतिक कमिटमेंट होता है और उनकी कला में भी दिखता भी है। अगर कोई यह कहता है कि उसका राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है तो वह अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है।
पवन: कला, समाज को प्रभावित करती है लेकिन समाज, कला को किस तरह प्रभावित करता है?
सथ्यू: मैं दोनों को अलग करके नहीं देखता। समाज के तत्कालीन प्रश्न ही कलाकृति का आधार बनते हैं। वे बुराइयाँ हैं जिन्हें हम लंबे समय से स्वीकार करते आ रहे हैं, एक कलाकार उन्हेे अपनी कला के जरिये समाज के सामने दुबारा खोलकर रखता है और अपने प्रेक्षक को उन पर सोचने को मजबूर कर देता है।
पवन: 70 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी मूवमेंट के उभार से लगभग हर कला, साहित्य और फिल्म प्रभावित रही, ‘इप्टा’ जैसा सांस्कृतिक आंदोलन भी चला। लेकिन अब वह उतार पर नजर आता है। ऐसा क्यों?
सथ्यू: देखिये, जहां तक मूवमेंट का सवाल है। इसने हमें एक सपना दिया- ‘बेहतर दुनिया का सपना’। हम सब इससे प्रभावित थे। मैंने पहले भी कहा आंदोलन से जुड़े होने के कारण ही हम लोग ‘गर्म हवा’ बना सके। लेकिन यह ग्लोबलाइजेशन का दौर है और हम बदलती परिस्थितियों के हिसाब से खुद को नया नहीं बना सके, इसीलिये ऐसा हुआ। मार्क्स ने भी कहा था-यह परिवर्तन का दर्शन है। हमें इस तरफ भी सोचना होगा।
पवन: लेकिन आज आंदोलन की हर धारा इस पर विचार कर रही है और नित नए प्रयोग हो रहे हैं। नेपाल में माओवादियों का प्रयोग आपके सामने है।
सथ्यू: हाँ, वहाँ कुछ बातें अच्छी हैं। आज कल के जमाने में माओविस्ट रेवोल्यूशन को कंडेम किया जाता है.... लेफ्ट के लोगों ने भी किया है। नक्सलाइट आज भी है। उनकी भी एक आइडियालॉजी है। कहा जाता हैकि वे काफी ंिहंसक भी हो जाते हैं। लेकिन माओवादियों की सरकार के साथ बैठक और उसमें हिस्सा लेने से बहुत फर्क पड़ा है।
पवन: ‘गर्म हवा’ जैसी समानांतर धारा की फिल्में क्या आपको नहीं लगता कि एक विशेष वर्ग में सिमट कर रह जाती हैं। क्या इनका फैलाव आम जनता तक नहीं होना चाहिये ?
सथ्यू: होना चाहिये, यह जरूरी है। लेकिन एक लंबे दौर तक ऐसा हो पाएगा, ऐसा कह पाना संभव नहीं है। फिलहाल ऐसा नहीं हो सकता। साहित्य में भी नहीं होता। घटिया साहित्य ज्यादा छपता और पढ़ा जाता है। मल्टीप्लैक्स में ‘वैलकम’ जैसी फिल्म देखने वाले ऐसी फिल्म नहीं देख सकते। फिल्म देखना भी एक कला है जिसके लिये आँखें होनी चाहिये। इसकी ट्रेनिंग शुरू से ही लोगों को दी जानी चाहिये।
पवन: समानांतर सिनेमा के सामने आज कौन सी चुनौतियाँ हैं ?
सथ्यू: फिल्म बनाना एक महंगा काम है। इसके लिये स्पॉन्सर और प्रोत्साहन की जरूरत होती है। ‘लगान’ की चर्चा ऑस्कर में आने की वजह से भी हुई और इसकी टीम ने फिल्म को वहां प्रदर्शित करने में करोड़ों रूपये फूँक दिए, जिसमें एक नई फिल्म बन सकती थी। मजे की बात यह है कि ‘लगान’ के पास ऑस्कर में नामांकन का वही सर्टिफिकेट है जो ‘गर्म हवा’ को उससे 30-35 साल पहले मिला था। यह फिल्म कान फेस्टिवल में भी दिखाई गई और तब ऑस्कर के चयनकर्ताओं ने इसे ऑस्कर समारोह में दिखाने को कहा। मैं सिर्फ पैसे की तंगी के चलते वहाँ नहीं जा सका। हाँ, मैंने फिल्म भेज दी और इसका सर्टिफिकेट मेरे पास पड़ा है।
पवन: क्या पैसे की तंगी ने फिल्म बनाने की प्रक्रिया में बाधा डाली ?
सथ्यू: फिल्में सिर्फ पैसे से नहीं, पैशन से बनती हैं। (मुस्कराते हैं) लेकिन पैसा भी चाहिये। उस जमाने में 2.5 लाख निगेटिव बनने में लगा। हमारे पास साउंड रिकॉर्डिंग का सामान मुंबई से आता था और उसके साथ एक आदमी भी। इसका 150 रू0 प्रतिदिन का खर्च था और हमारे पास इतने भी नहीं थे। अंततः सारी शूटिंग बिना साउंड रिकार्डिंग के ही हुई। फिल्म बाद में बंबई जाकर डब की गई। तकरीबन 9 लाख कुल खर्चा आया, पूरी फिल्म में। कई कलाकारों को मैं उनका मेहनताना भी नहीं दे सका... मेरे ऊपर बहुत सा कर्जा हो गया और नौ साल लगे इससे उबरने में।
 पवन : इसके अलावा और क्या-क्या समस्याएँ आईं ?
 सथ्यू: खुद की तारीफ नहीं करना चाहिये। लेकिन कहूँगा कि बेहतरीन फिल्म बनी थी और मैं समझता हूँ  कि समाज पर भी सकारात्मक प्रभाव डालती। लेकिन शुरूआत में रिलीज के लिये इसे सेंसर सर्टिफिकेट नहीं मिला। कहा गया इससे समाज में तनाव फैल सकता है... इस बकवास पर कोई माथा ही पीट सकता था क्योंकि उस समय तमाम लोग कुछ ऐसा कर रहे थे जो समाज पर बुरा प्रभाव डाल रहा था। एक साल की जद्दोजहद के बाद इंदिराजी ने जब खुद पूरी फिल्म देखी और कहा रिलीज कर दो... तब ही इसका रिलीज संभव हो पाया... लेकिन यू.पी. में नहीं। (मुस्कराते हैं)...वहाँ चुनाव होने वाले थे। इस तरह 1973 में तैयार फिल्म 74 में सबसे पहले बंगलौर में रिलीज हो सकी।
 पवन: आप रंगमंच में काफी सक्रिय रहे। फिल्म और रंगमंच में आप मुख्यतः क्या अंतर पाते हैं ?
 सथ्यू: अपनी बात कहने की दो अलग-अलग विधाएं हैं...कैमरे की वजह से काफी सहूलियत हो जाती है लेकिन रंगमंच एक संस्कार है। यहां कलाकार और दर्शक का तादात्म्य स्थापित होता है। यह विधा बहुत पुरानी है और कभी नहीं मरेगी।
 पवन : आपकी दूसरी फिल्मों को ‘गर्म हवा’ जितनी चर्चा नहीं मिली ?
 सथ्यू : ‘गर्म हवा’ जैसी फिल्म कोई रोज नहीं बना सकता... ऐसी फिल्में बस बन जाती हैं कभी-कभी। ‘पाथेर पांचाली, सुवर्ण रेखा’ जैसी फिल्में हमेशा नहीं बन सकतीं।
पवन मेराज़ मो. 09179371433
(‘‘प्रगतिशील वसुधा’’ से साभार)

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

लो क सं घ र्ष !: प्रेम और सौहार्द्र का विकास भी होगा



दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का उदघाटन करते वरिष्ठ साहित्यकार उद्भान्त, साथ मे शिखा वार्श्नेय,गिरीश पंकज,रणधीर सिंह सुमन और रवीन्द्र प्रभात

दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का उदघाटन करते वरिष्ठ साहित्यकार उद्भान्त, साथ मे शिखा वार्श्नेय,गिरीश पंकज,रणधीर सिंह सुमन और रवीन्द्र प्रभात

आज से 75 साल पहले सन 1936 में लखनऊ शहर प्रगतिषील लेखक संघ के प्रथम अधिवेषन का गवाह बना था, जिसकी गूंज आज तक सुनाई पड़ रही है। उसी प्रकार आज जो लखनऊ में ब्लॉग लेखकों का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हो रहा है, इसकी गूंज भी आने वाले 75 सालों तक सुनाई पड़ेगी।

उपरोक्त विचार बली प्रेक्षागृह, कैसरबाग, लखनऊ में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगर सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रतिष्ठित कवि उद्भ्रांत ने व्यक्त किये। सकारात्मक लेखन को बढ़ावा देने के उद्देष्य से यह सम्मेलन तस्लीम एवं परिकल्पना समूह द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में पूर्णिमा वर्मन (षारजाह) रवि रतलामी (भोपाल), षिखा वार्ष्णेय (लंदन), डॉ0 अरविंद मिश्र (वाराणसी), अविनाष वाचस्पति (दिल्ली), मनीष मिश्र (पुणे), इस्मत जैदी (गोवा), आदि ब्लॉगरों ने अपने उद्गार व्यक्त किये। कार्यक्रम को मुद्राराक्षस, शैलेन्द्र सागर, वीरेन्द्र यादव, राकेष, शकील सिद्दीकी, शहंषाह आलम, डॉ. सुभाष राय, डॉ. सुधाकर अदीब, विनय दास आदि वरिष्ठ साहित्यकारों ने भी सम्बोधित किया।

मंचासीन डॉ सुभाष राय,सुश्री शिखा वार्ष्नेय,वरिष्ठ साहित्यकार उद्भ्रांत, कथा क्रम के संपादक शैलेंद्र सागर, डॉ अरविंद मिश्रा, गिरीश पंकज आदि
मंचासीन डॉ सुभाष राय,सुश्री शिखा वार्ष्नेय,वरिष्ठ साहित्यकार उद्भ्रांत, कथा क्रम के संपादक शैलेंद्र सागर, डॉ अरविंद मिश्रा, गिरीश पंकज आदि
वक्ताओं ने अपनी बात रखते हुए कहा कि इंटरनेट एक ऐसी तकनीक है, जो व्यक्ति को अभिव्यक्ति का जबरदस्त साधन उपलब्ध कराती है, लोगों में सकारात्मक भावना का विकास करती है, दुनिया के कोने-कोने में बैठे लोगों को एक दूसरे से जोड़ने का अवसर उपलब्ध कराती है और सामाजिक समस्याओं और कुरीतियों के विरूद्ध जागरूक करने का जरिया भी बनती है। इसकी पहुँच और प्रभाव इतना जबरदस्त है कि यह दूरियों को पाट देता है, संवाद को सरल बना देता है और संचार के उत्कृष्ट साधन के रूप में उभर कर सामने आता है। लेकिन इसके साथ ही साथ जब यह अभिव्यक्ति के विस्फोट के रूप में सामने आती है, तो उसके कुछ नकारात्मक परिणाम भी देखने को मिलते हैं। ये परिणाम हमें दंगों और पलायन के रूप में झेलने पड़ते हैं। यही कारण है कि जब तक यह सकारात्मक रूप में उपयोग में लाया जाता है, तो समाज के लिए अलादीन के चिराग की तरह काम करता है, लेकिन जब यही अवसर नकारात्मक स्वरूप अख्तियार कर लेता है, तो समाज में विद्वेष और घृणा की भावना पनपने लगती है और नतजीतन सरकारें बंदिषें का हंटर सामने लेकर सामने आ जाती हैं। लेकिन यदि रचनाकार अथवा लेखक सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखते हुए इस इंटरनेट का उपयोग करे, तो कोई कारण नहीं कि उसके सामने किसी तरह का खतरा मंडराए। इससे समाज में प्रेम और सौहार्द्र का विकास भी होगा और देष तरक्की की सढ़ियाँ भी चढ़ सकेगा।

परिकल्पना ब्लॉग दशक सम्मान
दशक के ब्लॉगर: (१) पूर्णिमा वर्मन (२) समीर लाल समीर (३) रवि रतलामी(४) रश्मि प्रभा (५) अविनाश वाचस्पति
दशक के ब्लॉग: (१) उड़न तश्तरी: ब्लॉगर समीर लाल समीर (२) ब्लोग्स इन मिडिया: ब्लॉगर बी एस पावला (३) नारी: ब्लॉगर रचना (४) साई ब्लॉगः ब्लॉगर डॉ अरविंद मिश्र (५) साइंस ब्लोगर असोसिएशन: ब्लॉगर डॉ अरविंद मिश्र डॉ जाकिर अली रजनीश
दशक के ब्लॉगर दंपति:
कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव

तस्लीम परिकल्पना सम्मान-2011

मुकेश कुमार सिन्हा, देवघर, झारखंड ( वर्ष के श्रेष्ठ युवा कवि) , संतोष त्रिवेदी, रायबरेली, उत्तर प्रदेश (वर्ष के उदीयमान ब्लॉगर), प्रेम जनमेजय, दिल्ली (वर्ष के श्रेष्ठ व्यंग्यकार ),राजेश कुमारी, देहरादून, उत्तराखंड (वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका, यात्रा वृतांत ), नवीन प्रकाश,रायपुर, छतीसगढ़ (वर्ष के युवा तकनीकी ब्लॉगर),अनीता मन्ना,कल्याण (महाराष्ट्र) (वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग सेमिनार के आयोजक),डॉ. मनीष मिश्र, कल्याण (महाराष्ट्र) (वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग सेमिनार के आयोजक),सीमा सहगल(रीवा,मध्यप्रदेश) रू रश्मि प्रभा ( वर्ष की श्रेष्ठ टिप्पणीकार, महिला ), शाहनवाज,दिल्ली (वर्ष के चर्चित ब्लॉगर, पुरुष ), डॉ जय प्रकाश तिवारी (वर्ष के यशस्वी ब्लॉगर),नीरज जाट, दिल्ली (वर्ष के श्रेष्ठ लेखक, यात्रा वृतांत),गिरीश बिललोरे मुकुल,जबलपुर (मध्यप्रदेश) (वर्ष के श्रेष्ठ वायस ब्लॉगर), दर्शन लाल बवेजा,यमुना नगर (हरियाणा) (वर्ष के श्रेष्ठ विज्ञान कथा लेखक),शिखा वार्ष्णेय, लंदन ( वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका, संस्मरण), इस्मत जैदी,पणजी (गोवा) (वर्ष का श्रेष्ठ गजलकार),राहुल सिंह, रायपुर, छतीसगढ़ (वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग विचारक),बाबूशा कोहली, लंदन (यूनाइटेड किंगडम) (वर्ष की श्रेष्ठ कवयित्री ), रंजना (रंजू) भाटिया,दिल्ली (वर्ष की चर्चित ब्लॉगर, महिला),सिद्धेश्वर सिंह, खटीमा (उत्तराखंड) (वर्ष के श्रेष्ठ अनुवादक), कैलाश चन्द्र शर्मा, दिल्ली (वर्ष के श्रेष्ठ वाल कथा लेखक ),धीरेंद्र सिंह भदौरोया (वर्ष के श्रेष्ठ टिप्पणीकार, पुरुष),शैलेश भारतवासी, दिल्ली (वर्ष के तकनीकी ब्लॉगर),अरविंद श्रीवास्तव, मधेपुरा (बिहार) (वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग समीक्षक),अजय कुमार झा, दिल्ली (वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग खबरी),सुमित प्रताप सिंह, दिल्ली (वर्ष के श्रेष्ठ युवा व्यंग्यकार),रविन्द्र पुंज, यमुना नगर (हरियाणा) (वर्ष के नवोदित ब्लॉगर), अर्चना चाव जी, इंदोर (एम पी) (वर्ष की श्रेष्ठ वायस ब्लॉगर),पल्लवी सक्सेना,भोपाल (वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका, सकारात्मक पोस्ट) ,अपराजिता कल्याणी, पुणे (वर्ष की श्रेष्ठ युवा कवयित्री ) ,चंडी दत्त शुक्ल, जयपुर (वर्ष के श्रेष्ठ लेखक, कथा कहानी ),दिनेश कुमार माली,बलराजपुर (उड़ीसा) वर्ष के श्रेष्ठ लेखक (संस्मरण ),डॉ रूप चंद शास्त्री मयंक (खटीमा) वर्ष के श्रेष्ठ गीतकार, सुधा भार्गव,वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका, डॉ हरीश अरोड़ा, दिल्ली ( वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग समीक्षक ) आदि

तस्लीम परिकल्पना विशेष ब्लॉग प्रतिभा सम्मान-2011

कुँवर कुसुमेश, लखनऊ, प्रीत अरोड़ा, चंडीगढ़, सुनीता शानू, दिल्ली, कनिष्क कश्यप, दिल्ली, निर्मल गुप्त, मेरठ, मुकेश कुमार तिवारी, इंदोर,अल्का सैनी,चंडीगढ़,प्रवीण त्रिवेदी, फ़तहपुर आदि



वटवृक्ष का लोकार्पण : वायें से सुश्री शिखा वार्ष्नेय,डॉ अरविंद मिश्रा, डॉ सुभाष राय, श्री शैलेंद्र सागर,श्री उद्भ्रांत, श्री गिरीश पंकज,ज़ाकिर अली रजनीश,रणधीर सिंह सुमन व अन्य

वटवृक्ष का लोकार्पण : वायें से सुश्री शिखा वार्ष्नेय,डॉ अरविंद मिश्रा, डॉ सुभाष राय, श्री शैलेंद्र सागर,श्री उद्भ्रांत, श्री गिरीश पंकज,ज़ाकिर अली रजनीश,रणधीर सिंह सुमन व अन्य

इस अवसर पर देष के कोने-कोने से आए 200 से अधिक ब्लॉगर, लेखक, संस्कृतिकर्मी और विज्ञान संचारक भी उपस्थित रहे। कार्यक्रम में तीन चर्चा सत्रों (न्यू मीडिया की भाषाई चुनौतियाँ, न्यू मीडिया के सामाजिक सरोकार, हिन्दी ब्लॉगिंगः दषा, दिषा एवं दृष्टि) में रचनाकारों ने अपने विचार रखे। इस अवसर पर कार्यक्रम के संयोजक रवीन्द्र प्रभात ने ब्लॉगरों की सर्वसम्मति से सरकार से ब्लॉग अकादमी के गठन की मांग की, जिससे ब्लॉगरों को संरक्षण प्राप्त हो सके और वे समाज के विकास में सकारात्मक योगदान दे सकें।

इस अवसर पर ‘वटवृक्ष‘ पत्रिका के ब्लॉगर दषक विषेषांक का लोकार्पण किया गया, जिसमें हिन्दी के सभी महत्वपूर्ण ब्लॉगरों के योगदान को रेखांकित किया गया है। इसके साथ ही साथ कार्यक्रम के सह संयोजक डॉ0 जाकिर अली रजनीष की पुस्तक ‘भारत के महान वैज्ञानिक‘ एवं अल्का सैनी के कहानी संग्रह ‘लाक्षागृह‘ तथा मनीष मिश्र द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘हिन्दी ब्लॉगिंगः स्वरूप व्याप्ति और संभावनाएं‘ का भी लोकार्पण इस अवसर पर किया गया।

कार्यक्रम के दौरान ब्लॉग जगत में उल्लेखनीय योगदान के लिए पूर्णिमा वर्मन, रवि रतलामी, बी एस पावला, रचना, डॉ अरविंद मिश्र, समीर लाल समीर, कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव को ‘परिकल्पना ब्लॉग दशक सम्मान‘ से विभूषित किया गया।

इसके साथ ही साथ अविनाश वाचस्पति को प्रब्लेस चिट्ठाकारिता शिखर सम्मान, रश्मि प्रभा को शमशेर जन्मशती काव्य सम्मान, डॉ सुभाष राय को अज्ञेय जन्मशती पत्रकारिता सम्मान, अरविंद श्रीवास्तव को

“लखनऊ में स्थापित होगा डॉ राम मनोहर लोहिया ब्लॉगर पीठ, इस आशय का प्रस्ताव संयोजक रवीन्द्र प्रभात ने सभा पटल पर रखा जिसे ध्वनि मत से पारित कर दिया गया। साथ इस अवसर पर रवीन्द्र प्रभात ने ब्लॉगर कोश बनाने की बात कही ।”

केदारनाथ अग्रवाल जन्मशती साहित्य सम्मान, शहंशाह आलम को गोपाल सिंह नेपाली जन्मशती काव्य सम्मान, शिखा वार्ष्णेय को जानकी बल्लभ शास्त्री स्मृति साहित्य सम्मान, गिरीश पंकज को श्रीलाल शुक्ल व्यंग्य सम्मान, डॉ. जाकिर अली रजनीश को फैज अहमद फैज जन्मशती सम्मान तथा 51 अन्य ब्लॉगरों को ‘तस्लीम-परिकल्पना सम्मान‘ प्रदान किये गये।

रविवार, 26 अगस्त 2012

कामरेड अवतार कृष्ण हंगल दिवंगत

वयोवृद्ध कम्युनिस्ट, प्रख्यात स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सांस्कृतिक आन्दोलन के पुरोधा, भारतीय रंगमंच के शिखर पुरूष एवं  बॉलीवुड के प्रख्यात अभिनेता अवतार कृष्ण हंगल का रविवार को 98 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। वह काफी समय से बीमार थे। 13 अगस्त को अपने स्नानघर में फिसल कर गिरने से उनके दाएं जांघ की हड्डी टूट गई थी और रीढ़ की हड्डी में चोट आई थी। सर्जरी कराने के लिए उन्हें 16 अगस्त को  उपनगरीय सांताक्रूज के आशा पारेख अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उनकी सर्जरी नहीं हो पाई क्योंकि उन्हें सीने व सांस लेने में तकलीफ हो रही थी।
वे भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक योद्धा की भूमिका में उन्होंने भूखा रहना पसन्द किया परन्तु समर्पण नहीं किया था। ज्ञातव्य हो कि लम्बे दौर तक शिवसेना और भाजपा की साम्प्रदायिक गुंडागीरी के कारण उन्हें फिल्मों में काम मिलना बन्द हो गया था। परन्तु साम्प्रदायिकता के खिलाफ उनके संघर्ष में कभी कोई कमी नहीं आई।
15 अगस्त 1917 को मौजूदा पाकिस्तान के सियालकोट में उनका जन्म हुआ था और भारत विभाजन के दर्द के साथ वे मुम्बई पहुंचे थे। उनका बचपन पेशावर में गुजरा था। अभिनय का शौक भी उन्हें बचपन से ही था लेकिन शुरुआत में उन्होंने इसे कभी गम्भीरता से नहीं लिया। हंगल ने अपने अभिनय के सफर की शुरुआत उम्र के 50वें पड़ाव पर की। वर्ष 1966 में बनी बासु भट्टाचार्य की फिल्म तीसरी कसम में वह पहली बार रूपहले पर्दे पर नजर आए। उसके बाद वह जाने-माने चरित्र अभिनेता के रूप में पहचाने जाने लगे। वह कभी रामू काका के रूप में नजर आए तो कभी इमाम साहब के रूप में। खुद हंगल को फिल्म शोले में इमाम साहब तथा शौकीन में इंदरसेन उर्फ एंडरसन की भूमिकाएं बहुत पसंद थीं। अब तक करीब 200 फिल्मों में अभिनय कर चुके हंगल को भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए वर्ष 2006 में पद्म भूषण से नवाजा गया। हंगल ऑस्कर के लिए नामित फिल्म लगान में शंभू काका के रूप में नजर आए। फिल्मों में आखिरी बार वह दिल मांगे मोर में अभिनय करते दिखे। उन्होंने 200 से अधिक फिल्मों में काम किया था। उन्होंने नमक हराम, शोले, शौकीन, आईना, बावर्ची जैसी फिल्मों में भूमिका निभाई था। सात साल के बाद हाल ही में वह एक टीवी सीरियल ‘मधुबाला’ के एक दृश्य में नजर आए थे। शोले में एक अंधे बुजुर्ग मुस्लिम की भूमिका में उनका एक डॉयलाग ‘इतना सन्नाटा को है भाई’ आज तक लोकप्रिय है। हंगल ने शशि कपूर और रेखा अभिनीत फिल्म काली घटा में बतौर खलनायक काम किया था। हालांकि बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म असफल रही थी लेकिन हंगल के अभिनय की सभी ने दिल खोलकर तारीफ की थी।
हिन्दी फिल्मों में अकसर निरीह से पिता, दादा और नौकर की भूमिकाओं में दिखाई देने वाले हंगल एक बेहतरीन अभिनेता के साथ-साथ अच्छे टेलर भी थे। जिंदगी के 50 वसंत देखने के बाद फिल्मों का रुख करने वाले हंगल ने अपनी आत्मकथा ‘लाइफ एण्ड टाइम्स ऑफ ए.के. हंगल’ में लिखा है कि उनके पिता के एक मित्र ने उन्हें दर्जी बनने का सुझाव देते हुए कहा था कि इससे वह स्वतंत्र रूप से अपनी आजीविका चला सकते हैं और कपड़े सिलने का कारोबार एक फलता-फूलता उद्योग भी है। उन्हें यह विचार बहुत पसंद आया और इस तरह न्यायाधीशों और बड़े सरकारी मुलाजिमों के घर के चिराग ने टेलरिंग में अपना भविष्य तलाशने का फैसला किया। हालांकि उन्होंने बड़े जतन से अपनी राह बनाई क्योंकि टेलरिंग के नाम पर उन्हें बटन तक टांकना नहीं आता था। उनके बहनोई ने इस काम में हंगल की मदद की और उन्हें इंग्लैंड में प्रशिक्षित एक दर्जी के पास ले गए। उस दर्जी ने हंगल को प्रशिक्षण देने के लिए 500 रुपए मांगे जिन्हें हासिल करने के लिए हंगल को दर्जीगीरी अपनाने के फैसले से पहले ही नाराज हो चुके अपने पिता हरि किशन हंगल से गुजारिश करनी पड़ी। उन्होंने अपने पिता को धन मांगने के लिए कई खत लिखे लेकिन किसी का जवाब नहीं आया। आखिर में उन्होंने इस धमकी के साथ लिखा कि अगर पैसे नहीं मिले तो वह कभी घर वापस नहीं लौटेंगे। इस बार पिता का दिल पसीज गया और धन मिलते ही हंगल को टेलरिंग का उस्ताद मिल गया।
अभी कुछ साल पहले वे इप्टा के नए साथियों को एक्टिंग का प्रशिक्षण देने लखनऊ आये थे और कई दिनों तक यहां रहे थे। स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं पर उनके लिखे लेख ”पार्टी जीवन“ में प्रकाशित हुए थे।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल एवं ”पार्टी जीवन“ की ओर से अपने इस पुरोधा को आखिरी सलाम।

शनिवार, 25 अगस्त 2012

भेड़ें और भेड़िये



एक बार एक वन के पशुओं को ऐसा लगा कि वे सभ्यता के उस स्तर पर पहुँच गए हैं, जहाँ उन्हें एक अच्छी शासन-व्यवस्था अपनानी चाहिए | और,एक मत से यह तय हो गया कि वन-प्रदेश में प्रजातंत्र की स्थापना हो | पशु-समाज में इस `क्रांतिकारी’ परिवर्तन से हर्ष की लहर दौड़ गयी कि सुख-समृद्धि और सुरक्षा का स्वर्ण-युग अब आया और वह आया |
जिस वन-प्रदेश में हमारी कहानी ने चरण धरे हैं,उसमें भेंडें बहुत थीं–निहायत नेक , ईमानदार, दयालु , निर्दोष पशु जो घास तक को फूँक-फूँक कर खाता है |
भेड़ों ने सोचा कि अब हमारा भय दूर हो जाएगा | हम अपने प्रतिनिधियों से क़ानून बनवाएँगे कि कोई जीवधारीकिसी को न सताए, न मारे | सब जिएँ और जीने दें | शान्ति,स्नेह,बन्धुत्त्व और सहयोग पर समाज आधारित हो |
इधर, भेड़ियों ने सोचा कि हमारा अब संकटकाल आया | भेड़ों की संख्या इतनी अधिक है कि पंचायत में उनका बहुमत होगा और अगर उन्होंने क़ानून बना दिया कि कोई पशु किसी को न मारे, तो हम खायेंगे क्या? क्या हमें घास चरना सीखना पडेगा?
ज्यों-ज्यों चुनाव समीप आता, भेड़ों का उल्लास बढ़ता जाता |
ज्यों-ज्यों चुनाव समीप आता, भेड़ियों का दिल बैठता जाता |
एक दिन बूढ़े सियार ने भेड़िये से कहा,“मालिक, आजकल आप बड़े उदास रहते हैं |”

हर भेड़िये के आसपास दो – चार सियार रहते ही हैं | जब भेड़िया अपना शिकार खा लेता है, तब ये सियार हड्डियों में लगे माँस को कुतरकर खाते हैं,और हड्डियाँ चूसते रहते हैं | ये भेड़िये के आसपास दुम हिलाते चलते हैं, उसकी सेवा करते हैं और मौके-बेमौके “हुआं-हुआं ” चिल्लाकर उसकी जय बोलते हैं |
तो बूढ़े सियार ने बड़ी गंभीरता से पूछा, “महाराज, आपके मुखचंद्र पर चिंता के मेघ क्यों छाये हैं?” वह सियार कुछ कविता भी करना जानता होगा या शायद दूसरे की उक्ति को अपना बनाकर कहता हो |
ख़ैर, भेड़िये ने कहा,“ तुझे क्या मालूम नहीं है कि वन-प्रदेश में नई सरकार बनने वाली है? हमारा राज्य तो अब गया |

सियार ने दांत निपोरकर कहा,“ हम क्या जानें महाराज ! हमारे तो आप ही `माई-बाप’ हैं | हम तो कोई और सरकार नहीं जानते| आपका दिया खाते हैं, आपके गुण गाते हैं ”
भेड़िये ने कहा, “ मगर अब समय ऐसा आ रहा है कि सूखी हड्डियां भी चबाने को नहीं मिलेंगी |”
सियार सब जानता था, मगर जानकार भी न जानने का नाटक करना न आता, तो सियार शेर न हो गया होता !

आखिर भेड़िये ने वन-प्रदेश की पंचायत के चुनाव की बात बूढ़े सियार को समझाई और बड़े गिरे मन से कहा, “ चुनाव अब पास आता जा रहा है | अब यहाँ से भागने के सिवा कोई चारा नहीं | पर जाएँ भी कहाँ ?”
सियार ने कहा, “ मालिक, सर्कस में भरती हो जाइए |”
भेड़िये ने कहा, “अरे, वहाँ भी शेर और रीछ को तो ले लेते हैं,पर हम इतने बदनाम हैं कि हमें वहाँ भी कोई नहीं पूछता”
“तो,” सियार ने खूब सोचकर कहा, “ अजायबघर में चले जाइए |”
भेड़िये ने कहा, “ अरे, वहाँ भी जगह नहीं है, सुना है |वहाँ तो आदमी रखे जाने लगे हैं |”

बूढा सियार अब ध्यानमग्न हो गया | उसने एक आँख बंद की, नीचे के होंठ को ऊपर के दाँत से दबाया और एकटक आकाश की और देखने लगा जैसे विश्वात्मा से कनेक्शन जोड़ रहा हो | फिर बोला,“बस सब समझ में आ गया | मालिक, अगर पंचायत में आप भेड़िया जाति का बहुमत हो जाए तो?”
भेड़िया चिढ़कर बोला, “ कहाँ की आसमानी बातें करता है? अरे हमारी जाति कुल दस फीसदी है और भेड़ें तथा अन्य पशु नब्बे फीसदी |भला वे हमें काहे को चुनेंगे | अरे, कहीं ज़िंदगी अपने को मौत के हाथ सौंप सकती है? मगर हाँ, ऐसा हो सकता तो क्या बात थी !”

बूढा सियार बोला,“ आप खिन्न मत होइए सरकार ! एक दिन का समय दीजिये | कल तक कोई योजना बन ही जायेगी | मगर एक बात है | आपको मेरे कहे अनुसार कार्य करना पड़ेगा |”
मुसीबत में फंसे भेड़िये ने आखिर सियार को अपना गुरु माना और आज्ञापालन की शपथ ली |
दूसरे दिन बूढा सियार अपने तीन सियारों को लेकर आया | उनमें से एक को पीले रंग में रंग दिया था, दूसरे को नीले में और तीसरे को हरे में |
भेड़िये ने देखा और पूछा, “ अरे ये कौन हैं?
बूढा सियार बोला, “ ये भी सियार हैं सरकार, मगर रंगे सियार हैं |आपकी सेवा करेंगे | आपके चुनाव का प्रचार करेंगे |”
भेड़िये ने शंका की,“ मगर इनकी बात मानेगा कौन? ये तो वैसे ही छल-कपट के लिए बदनाम हैं |”
सियार ने भेड़िये का हाथ चूमकर कहा, “ बड़े भोले हैं आप सरकार ! अरे मालिक, रूप-रंग बदल देने से तो सुना है आदमी तक बदल जाते हैं | फिर ये तो सियार हैं |”

और तब बूढ़े सियार ने भेड़िये का भी रूप बदला | मस्तक पर तिलक लगाया, गले में कंठी पहनाई और मुँह में घास के तिनके खोंस दिए | बोला, “ अब आप पूरे संत हो गए | अब भेड़ों की सभा में चलेंगे | मगर तीन बातों का ख्याल रखना– अपनी हिंसक आँखों को ऊपर मत उठाना, हमेशा ज़मीन की ओर देखना और कुछ बोलना मत, नहीं तो सब पोल खुल जायेगी और वहां बहुत-सी भेड़ें आयेंगी, सुन्दर-सुन्दर, मुलायम-मुलायम, तो कहीं किसी को तोड़ मत खाना |”
भेड़िये ने पूछा, “ लेकिन रंगे सियार क्या करेंगे?ये किस काम आयेंगे?”
बूढा सियार बोला,“ ये बड़े काम के हैं | आपका सारा प्रचार तो यही करेंगे | इन्हीं के बल पर आप चुनाव लड़ेंगे | यह पीला वाला सियार बड़ा विद्वान है ,विचारक है ,कवि भी है,और लेखक भी | यह नीला सियार नीला और पत्रकार है | और यह हरा धर्मगुरु | बस, अब चलिए |”

“ ज़रा ठहरो,” भेड़िये ने बूढ़े सियार को रोका, “ कवि, लेखक, नेता, विचारक– ये तो सुना है बड़े अच्छे लोग होते हैं | और ये तीनों……..”
बात काटकर सियार बोला, “ ये तीनों सच्चे नहीं हैं, रंगे हुए हैं महाराज ! अब चलिए देर मत करिए |”
और वे चल दिए | आगे बूढा सियार था, उसके पीछे रंगे सियारों के बीच भेड़िया चल रहा था– मस्तक पर तिलक, गले में कंठी, मुख में घास के तिनके | धीरे-धीरे चल रहा था, अत्यंत गंभीरतापूर्वक, सर झुकाए विनय की मूर्ति !


उधर एक स्थान पर सहस्रों भेंड़ें इकट्ठी हो गईं थीं, उस संत के दर्शन के लिए, जिसकी चर्चा बूढ़े सियार ने फैला रखी थी |
चारों सियार भेड़िये की जय बोले हुए भेड़ों के झुण्ड के पास आए| बूढ़े सियार ने एक बार जोर से संत भेड़िये की जय बोली ! भेड़ों में पहले से ही यहाँ-वहाँ बैठे सियारों ने भी जयध्वनि की |
भेड़ों ने देखा तो वे बोलीं, “ अरे भागो, यह तो भेड़िया है |”

तुरंत बूढ़े सियार ने उन्हें रोककर कहा, “ भाइयों और बहनों ! अब भय मत करो| भेड़िया राजा संत हो गए हैं | उन्होंने हिंसा बिलकुल छोड़ दी है | उनका `हृदय परिवर्तन हो गया है | वे आज सात दिनों से घास खा रहे हैं | रात-दिन भगवान के भजन और परोपकार में लगे रहते हैं | उन्होंने अपना जीवन जीव-मात्र की सेवा में अर्पित कर दिया है | अब वे किसी का दिल नहीं दुखाते, किसी का रोम तक नहीं छूते |भेड़ों से उन्हें विशेष प्रेम है | इस जाति ने जो कष्ट सहे हैं,उनकी याद करके कभी-कभी भेड़िया संत की आँखों में आँसू आ जाते हैं | उनकी अपनी भेड़िया जाति ने जो अत्याचार आप पर किये हैं उनके कारण भेड़िया संत का माथा लज्जा से जो झुका है, सो झुका ही हुआ है | परन्तु अब वे शेष जीवन आपकी सेवा में लगाकर तमाम पापों का प्रायश्चित्त करेंगे | आज सवेरे की ही बात है कि एक मासूम भेड़ के बच्चे के पाँव में काँटा लग गया, तो भेड़िया संत ने उसे दाँतों से निकाला, दाँतों से ! पर जब वह बेचारा कष्ट से चल बसा, तो भेदिया संत ने सम्मानपूर्वक उसकी अंत्येष्टि-क्रिया की | उनके घर के पास जो हड्डियों का ढेर लगा है, उसके दान की घोषणा उन्होंने आज सवेरे ही की | अब तो वह सर्वस्व त्याग चुके हैं | अब आप उनसे भय मत करें | उन्हें अपना भाई समझें | बोलो सब मिलकर, संत भेड़िया जी की जय !”
भेड़िया जी अभी तक उसी तरह गर्दन डाले विनय की मूर्ती बने बैठे थे |बीच में कभी-कभी सामने की ओर इकट्ठी भेड़ों को देख लेते और टपकती हुई लार को गुटक जाते |
बूढा सियार फिर बोला, “ भाइयों और बहनों, में भेड़िया संत से अपने मुखारविंद से आपको प्रेम और दया का सन्देश देने की प्रार्थना करता पर प्रेमवश उनका हृदय भर आया है, वह गदगद हो गए हैं और भावातिरेक से उनका कंठ अवरुद्ध हो गया है | वे बोल नहीं सकते | अब आप इन तीनों रंगीन प्राणियों को देखिये | आप इन्हें न पहचान पाए होंगे | पहचानें भी कैसे? ये इस लोक के जीव तो हैं नहीं | ये तो स्वर्ग के देवता हैं जो हमें सदुपदेश देने के लिए पृथ्वी पर उतारे हैं | ये पीले विचारक हैं,कवि हैं, लेखक हैं | नीले नेता हैं और स्वर्ग के पत्रकार हैं और हरे वाले धर्मगुरु हैं | अब कविराज आपको स्वर्ग-संगीत सुनायेंगे | हाँ कवि जी …….”
पीले सियार को `हुआं-हुआं ‘ के सिवा कुछ और तो आता ही नहीं था | `हुआं-हुआं चिल्ला दिया |शेष सियार भी `हुआं-हुआं’ बोल पड़े | बूढ़े सियार ने आँख के इशारे से शेष सियारों को मना कर दिया और चतुराई से बात को यों कहकर सँभाला,“ भई कवि जी तो कोरस में गीत गाते हैं | पर कुछ समझे आप लोग? कैसे समझ सकते हैं? अरे, कवि की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कवि काहे का? उनकी कविता में से शाश्वत के स्वर फूट रहे हैं | वे कह रहे हैं की जैसे स्वर्ग में परमात्मा वैसे ही पृथ्वी पर भेड़िया | हे भेड़िया जी, महान ! आप सर्वत्र व्याप्त हैं, सर्वशक्तिमान हैं | प्रातः आपके मस्तक पर तिलक करती है, साँझ को उषा आपका मुख चूमती है , पवन आप पर पंखा करता है और रात्रि को आपकी ही ज्योति लक्ष-लक्ष खंड होकर आकाश में तारे बनकर चमकती है | हे विराट ! आपके चरणों में इस क्षुद्र का प्रणाम है |”
फिर नीले रंग के सियार ने कहा, “ निर्बलों की रक्षा बलवान ही कर सकते हैं | भेड़ें कोमल हैं, निर्बल हैं, अपनी रक्षा नहीं कर सकतीं | भेड़िये बलवान हैं, इसलिए उनके हाथों में अपने हितों को छोड़ निश्चिन्त हो जाओ, वे भी तुम्हारे भाई हैं | आप एक ही जाति के हो | तुम भेड़ वह भेड़िया | कितना कम अंतर है ! और बेचारा भेड़िया व्यर्थ ही बदनाम कर दिया गया है कि वह भेड़ों को खाता है | अरे खाते और हैं, हड्डियां उनके द्वार पर फेंक जाते हैं | ये व्यर्थ बदनाम होते हैं | तुम लोग तो पंचायत में बोल भी नहीं पाओगे | भेड़िये बलवान होते हैं | यदि तुम पर कोई अन्याय होगा, तो डटकर लड़ेंगे | इसलिए अपने हित की रक्षा के लिए भेडियों को चुनकर पंचायत में भेजो| बोलो संत भेड़िया की जय !”

फिर हरे रंग के धर्मगुरु ने उपदेश दिया, “ जो यहाँ त्याग करेगा, वह उस लोक में पाएगा | जो यहाँ दुःख भोगेगा, वह वहां सुख पाएगा | जो यहाँ राजा बनाएगा, वह वहाँ राजा बनेगा | जो यहाँ वोट देगा, वह वहाँ वोट पाएगा | इसलिए सब मिलकर भेड़िये को वोट दो | वे दानी हैं, परोपकारी हैं, संत हैं | में उनको प्रणाम करताहूं |”
यह एक भेड़िये की कथा नहीं है, सब भेड़ियों की कथा है | सब जगह इस प्रकार प्रचार हो गया और भेड़ों को विश्वास हो गया कि भेड़िये से बड़ा उनका कोई हित-चिन्तक और हित-रक्षक नहीं है |
और, जब पंचायत का चुनाव हुआ तो भेड़ों ने अपने हित- रक्षा के लिए भेड़िये को चुना |
और, पंचायत में भेड़ों के हितों की रक्षा के लिए भेड़िये प्रतिनिधि बनकर गए | और पंचायत में भेड़ियों ने भेड़ों की भलाई के लिए पहला क़ानून यह बनाया —-
हर भेड़िये को सवेरे नाश्ते के लिए भेड़ का एक मुलायम बच्चा दिया जाए , दोपहर के भोजन में एक पूरी भेड़ तथा शाम को स्वास्थ्य के ख्याल से कम खाना चाहिए, इसलिए आधी भेड़ दी जाए |

-हरिशंकर परसाई



बुधवार, 14 दिसंबर 2011

परसाई जी की बात

पैंतालिस साल पहले, जबलपुर में
परसाई जी के पीछे लगभग भागते हुए
मैंने सुनाई अपनी कविता
और पूछा
क्या इस पर ईनाम मिल सकता है
‘अच्छी कविता पर सज़ा भी मिल सकती है’
सुनकर मैं सन्न रह गया
क्योंकि उस वक़्त वह छात्रों की एक कविता प्रतियोगिता
की अध्यक्षता करने जा रहे थे

आज चारों तरफ़ सुनता हूँ
वाह-वाह-वाह-वाह, फिर से
मंच और मीडिया के लकदक दोस्त
लेते हैं हाथों-हाथ
सज़ा जैसी कोई सख़्त बात तक नहीं कहता

तो शक होने लगता है
परसाई जी की बात पर नहीं
अपनी कविता पर
- नरेश सक्सेना

सोमवार, 28 नवंबर 2011

संदर्भ: फैज अहमद फ़ैज़ जन्मशती वर्ष

फैज अहमद फै़ज़: अवाम का महबूब शायर
साल 2011 हिंदी- उर्दू के कई बड़े कवियों का जन्मशताब्दी साल है। यह एक महज इत्तेफाक है कि हिंदी में जहां हम इस साल बाबा नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह और अज्ञेय को उनकी जन्मशती पर याद कर रहे हैं वहीं उर्दू के दो बड़े शायर मज़ाज और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का भी यह जन्मशती साल है। बहरहाल, इन सब दिग्गज कवियों के बीच फ़ैज़ का मुकाम कुछ जुदा है। वे न सिर्फ उर्दूभाषियों के पसंदीदा शायर हैं, बल्कि हिंदी और पंजाबीभाषी लोग भी उन्हें उतने ही शिद्दत से प्यार करते हैं। गोया कि फ़ैज़ भाषा और क्षेत्रीयता की सभी हदें पार करते हैं। एक पूरा दौर गुजर गया, लेकिन फ़ैज़ की शायरी आज भी हिंद उपमहाद्वीप के करोड़ों- करोड़ों लोगों के दिलों दिमाग पर छाई हुई है। उनकी नज्मों- गजलों के मिसरे और टुकड़े लोगों की जबान पर कहावतों की तरह चढ़े हुए हैं। सच मायने में कहंे तो फ़ैज़ अवाम के महबूब शायर हैं और उनकी शायरी हरदिल अजीज।
 अविभाजित भारत के सियालकोट जिले के छोटे से गांव कालाकादिर में 13 फरवरी, 1911 को जन्मे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शुरूआती तालीम मदरसे में हुई। बचपन में ही उन्होंने अरबी व फारसी की तालीम मुकम्मल कर ली थी। बाद में उन्होंने स्कॉट मिशन स्कूल में दाखिल लिया। अदबी रूझान फ़ैज़ को विरासत में मिला। आपके वालिद सुल्तान मोहम्मद खान की गहरी दिलचस्पी अदब में थी। उर्दू के अजीम शायर इकबाल और सर अब्दुल कदीर से उनके नजदीकी संबंध थे। जाहिर हैं, परिवार के अदबी माहौल का फ़ैज़ पर भी असर पड़ा। स्कूली तालीम के दौरान ही उन्हें शायरी से लगाव हो गया। वे शायरी की किताबें किराये पर ले- लेकर पढ़ते। गोया कि शायरी का जुनून उनके सिर चढ़कर बोलता। शायरी के जानिब फ़ैज़ के इस लगाव को देखकर स्कूल के हेड मास्टर ने एक दिन उन्हें एक मिसरा दिया और उस पर गिरह लगाने को कहा। फ़ैज़ ने उनके कहने पर पाँच-छः अस आर की गजल लिख डाली। जिसे बाद में इनाम भी मिला। इसी के साथ ही उनके नियमित लेखन का सिलसिला शुरू हो गया। स्कूली तालीम के बाद उनकी आगे की पढ़ाई सियालकोट के मरे कॉलेज और लाहौर के ओरियंटन कॉलेज में हुई। वहांॅ उन्होंने अरबी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में एम0ए0 किया। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का परिवार, बड़ा परिवार था, जिसमें पांॅच बहनें और चार भाई थे। परिवार की आर्थिक मुश्किलों को देखते हुए, तालीम पूरी होते ही उन्होंने 1935 में एमएओ कॉलेज, अमृतसर में नौकरी ज्वाईन कर ली। वे अंग्रेजी के लेक्चरर हो गये।
 अमृतसर में नौकरी के दौरान उनकी मुलाकात महमूदज्जफर, डॉ0 रशीद जहां और डॉ0 मोहम्मद दीन तासीर से हुई। बाद में उनके दोस्तों की फेहरिस्त में सज्जाद जहीर का नाम भी जुड़ा। यह वह दौर था, जब भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ आजादी का आंदोलन चरम पर था और हर हिंदोस्तानी अपनी- अपनी तरह से इस आंदोलन में हिस्सेदारी कर रहा था। ऐसे ही हंगामाखेज माहौल में सज्जाद जहीर और उनके चंद दोस्तों ने 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। जिसके पहले अधिवेशन के अध्यक्ष महान कथाकार- उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद चुने गए। बहरहाल, फ़ैज़ भी लेखकों के इस अंादोलन से जुड़ गए। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने के बाद फ़ैज़ की शायरी में एक बड़ा बदलाव आया। उनकी शायरी की अंतर्वस्तु का कैनवास व्यापक होता चला गया। इश्क, प्यार- मोहब्बत की रूमानियत से निकलकर फ़ैज़ अपनी शायरी में हकीकतनिगारी पर जोर देने लगे। इसके बाद ही उनकी यह मशहूर गजल सामने आई- ”और भी दुख हैं, जमाने में मुहब्बत के सिवा/ राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा/ मुझसे पहली सी मुहब्बत, मेरी महबूब न मांग।“ फ़ैज़ की शायरी में ये प्रगतिशील, जनवादी चेतना आखिर तक कायम रही। कमोबेश उनकी पूरी शायदी, तरक्की पसंद ख्यालों का ही आइना है। उनके पहले के ही काव्य संग्रह ”नक्शे फरियादी“ की एक गजल के कुछ अस आर देखिए- ”आजिजी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी/ यासो हिर्मा के दुख दर्द के मानी सीखे/ जेरदस्तों के मसाइब को समझना सीखा/ सर्द आहों के, रूखेजर्द के मानी सीखे।“
 साल 1941 में ‘नक्शे फरियादी’ के प्रकाशन के बाद फ़ैज़ का नाम उर्दू अदब के अहम रचनाकारों में शुमार होने लगा। मुशायरों में भी वे शिरकत करते। एक इंकलाबी शायर के तौर पर उन्होंने जल्द ही मुल्क में शोहरत हासिल कर ली। अपने कलाम से उन्होंने बार- बार मुल्कवासियों को एक फैसलाकुन जंग के लिए ललकारा। ‘शीशों का मसीहा कोई नहीं“ शीर्षक नज्म में वे कहते हैं- ”सब सागर शीशे लालो- गुहर, इस बाजी में बद जाते हैं/ उठो, सब खाली हाथों को इस रन से बुलावे आते हैं।“ फ़ैज़ की ऐसी ही एक दीगर गजल का शेर है- ”लेकिन अब जुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं। इस जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं।“ मुल्क में आजादी की यह जद्दोजहद चल रही थी कि दूसरा महायुद्ध शुरू हो गया। जर्मनी ने रूस पर हमला कर दिया। यह हमला हुआ तो लगा कि अब इंग्लैण्ड भी नहीं बचेगा। भारत में फासिज्म की हुकूमत हो जाएगी। लिहाजा, फासिज्म को हराने के ख्याल से फ़ैज़ लेक्चरर का पद छोड़कर फौज में कप्तान हो गए। बाद में वे तरक्की पाकर कर्नल के ओहदे तक पहुंॅचे। आखिरकार, लाखों लोगों की कुर्बानियों के बाद 1947 में भारत को आजादी हासिल हुई। पर यह आजादी हमें बंटवारे के रूप में मिली। मुल्क दो हिस्सों में बंट गया। भारत और पाकिस्तान। बंटवारे सेे पहले हुई साम्प्रदायिक हिंसा ने पूरे मुल्क को झुलसा के रख दिया। रक्तरंजित और जलते हुए शहरों को देखते हुए फ़ैज़ ने ‘सुबहे-आजादी’ शीर्षक से एक नज्म लिखी। इस नज्म में बंटवारे का दर्द जिस तरह से नुमाया हुआ वैसा उर्दू अदब में दूसरी जगह मिलना बमुश्किल हैं- ”ये दाग दाग उजाला, ये शब गजीदा सहर/ वो इंतिजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं/ये वो सहर तो नहीं, जिसकी आरजू लेकर/ चले थे यार कि मिल जाएगी, कहीं न कहीं।“ इस नज्म में फ़ैज़ यहीं नहीं रूक गए, बल्कि वे आगे कहते हैं- ”नजाते-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई/चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई।“ यानि, फ़ैज़ मुल्क की खंडित आजादी से बेहद गमगीन थे। यह उनके ख्यालों का हिंदोस्तान नहीं था और उन्हें उम्मीद थी कि जल्द ही सब कुछ ठीक हो जाएगा।
 बहरहाल, बंटवारे के बाद फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पाकिस्तान चले गए। वहां उन्होंने पाकिस्तान टाईम्स, इमरोज और लैलो निहार के संपादक के रूप में काम किया। पाकिस्तान में भी फ़ैज़ का संघर्ष खत्म नहीं हुआ। यहांॅ भी वे सरकारों की गलत नीतियों की लगातार मुखालफत करते रहे। इस मुखालफत के चलते उन्हें कई बार जेल भी हुई। लेकिन उन्होंने फिर भी अपने विचार नहीं बदले। जेल में रहते हुए ही उनके दो महत्वपूर्ण कविता संग्रह ‘दस्ते सबा’ और ‘जिंदानामा’ प्रकाशित हुए। कारावास में एक वक्त ऐसा भी आया, जब जेल प्रशासन ने उन्हें परिवार- दोस्तों से मिलवाना तो दूर, उनसे कागज- कलम तक छीन लिए। फ़ैज़ ने ऐसे ही हालात में लिखा- ”मताए लौहो कलम छिन गई, तो क्या गम है/ कि खूने दिल में डुबो ली है उंगलियां मैने/जबां पे मुहर लगी है, तो क्या कि रख दी है/हर एक हल्का-ए-जंजीर में जबां मैंने।“ कारावास के दौरान फ़ैज़ की लिखी गई गजलों और नज्मों ने दुनिया भर की आवाम को प्रभावित किया। तुर्की के महान कवि नाजिम हिकमत की तरह उन्होंने भी कारावास और देश निकाला जैसी यातनाएं भोगी। लेकिन फिर भी वे फौजी हुक्मरानों के खिलाफ प्रतिरोध के गीत गाते रहे। ऐसी ही प्रतिरोध की उनकी एक नज्म है- ”निसार मैं तेरी गलियों पे ए वतन कि जहांॅॅ/चली है रस्म की कोई न सर उठाके चले/जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले/नजर चुरा के चले, जिस्मों- जां को बचा के चले।“
 फ़ैज़ की सारी जिंदगी को यदि उठाकर देखे तो उनकी जिंदगी कई उतार-चढ़ाव और संघर्षों की दास्तान है। बावजूद इसके उन्होंने अपना लिखना नहीं छोड़ा। उनकी जिंदगानी में और उसके बाद कई किताबें प्रकाशित हुई। दस्ते-तहे-संग, वादी-ए-सीना, शामे-शहरे-यारां, सारे सुखन हमारे, नुस्खहा-ए-वफा, गुबारे अयाम जहां उनके दीगर काव्य संग्रह हैं। वहीं मीजान और मताए-लौहो-कलम किताबों में उनके निबंध संकलित है। फ़ैज़ ने रेडियो नाटक भी लिखें। जिनमें दो नाटक-अजब सितमगर है और अमन के फरि ते काफी मकबूल हुए। उन्होंने जागो हुआ सबेरा नाम से एक फिल्म भी बनाई। जो लंदन के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में पुरस्कृत हुई। 1962 में उन्हें लेनिन शांति सम्मान से नवाजा गया। फ़ैज़ पहले एशियाई शायर बने, जिन्हें यह सम्मान बख्शा गया।
 भारत और पाकिस्तान के तरक्कीपसंद शायरों की फेहरिस्त में ही नहीं बल्कि समूचे एशिया उपमहाद्वीप और अफ्रीका के स्वतंत्रता और समाजवाद के लिए किए गए संघर्षों के संदर्भ में भी फ़ैज़ सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रासंगिक शायर है। उनकी शायरी जहां इंसान को शोषण से मुक्त कराने की प्रेरणा देती है, वहीं एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना का सपना भी जगाती है। उन्होंने अवाम के नागरिक अधिकारों के लिए, सैनिक तानाशाही के खिलाफ जमकर लिखा। ‘लाजिम है कि हम देखेंगे’, ‘बोल कि लब आजाद है तेरे’, ‘कटते भी चलो बढ़ते भी चलो’ उनकी ऐसी ही कुछ इंकलाबी नज्में हैं। अपने जीवनकाल में ही फ़ैज़ समय और मुल्क की सरहदें लांघकर एक अंतर्राष्ट्रीय शायर के तौर पर मकबूल हो चुके थे। दुनिया के किसी भी कोने में जुल्म होते उनकी कलम मचलने लगती। अफ्रीका के मुक्ति संघर्ष में उन्होंने जहांॅ ‘अफ्रीका कम बैक का’ नारा दिया, वहीं बेरूत में हुए नरसंहार के खिलाफ भी उन्होंने एक नज्म ‘एक नगमा कर्बला-ए-बेरूत के लिए’ शीर्षक से लिखी। गोया कि दुनिया में कहीं भी नाइंसाफी होती, तो वे अपनी नज्मों और गजलों के जरिये प्रतिरोध दर्ज करते थे।
 कुल मिलाकर फ़ैज़ की शायरी आज भी दुनिया भर में चल रहे लोकतांत्रिक संघर्ष को आवाज देती है। स्वाधीनता, जनवाद और सामाजिक समानता उनकी शायरी का मूल स्वर है। फ़ैज़ अपनी सारी जिंदगी में इस कसम को बड़ी मजबूती से निभाते रहे- ”हम परविशे- लौह-ओ-कलम करते रहेंगे/ जो दिल पे गुजरती है, रकम करते रहेंगे।“ एक मुकम्मल जिंदगी जीने के बाद फ़ैज़ ने 20 नवम्बर, 1984 को इस दुनिया से रूखसती ली। अवाम का यह महबूब शायर शारीरिक रूप से भले ही हमसे जुदा हो गया हो, लेकिन उनकी शायरी हमेशा जिंदा रहेगी और प्रेरणा देती रहेगी- ”बोल, कि लब आजाद हैं तेरे/बोल कि अब तक जुबा है तेरी।“
- जाहिद खान

प्रगतिशील लेखन आन्दोलन के पचहत्तर वर्ष

एक आग है जो जलती है अभी
भारत के सांस्कृतिक इतिहास का यह कोई विरल संयोग अथवा सहसा घटित घटना नहीं है कि युगान्तकारी विकराल मूर्ति भंजक प्रगतिशील लेखन आन्दोलन तथा अपने समय के सामाजिक यथार्थ के सबसे कुशल चित्रेता कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द्र के काल-जयी उपन्यास ‘गोदान’ की पचहततरवीं वर्षगांठ एक साथ मनायी जा रही है। साथ ही ऐसी यागदार विभूतियों की जन्म शताब्दियांॅ भी, जिन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ व आन्दोलन की संस्थापना, उसकी वैचारिकी व सैद्धान्तिकी रचने एवम् उसके चतुर्दिक विस्तार में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। जैसे कि फैज, नागार्जुन, केदारनाथ अगव्राल, शमशेर बहादुर सिंह, मजाज तथा भगवत् शरण उपाध्याय। सज्जाद जहीर, डॉ0 रशीद जहांॅ, डॉ0 अब्दुल अलीम, मुल्कराज आनन्द इत्यादि की जन्म शताब्दियांॅ निकट अतीत की ही घटनाएंॅ हैं। एक ही वर्ष में प्रगतिशील आन्दोलन का आरम्भ तथा गोदान का प्रकाशन (जून 36) काल विशेष में व्याप्त सामाजिक व्याकुलता तथा बदलाव की छटपटाहट की अभिव्यक्ति के दो रूप ही माने जा सकते हैं। यह कांग्रेस के नेतृत्व से भारतीय बुद्धिजीवियों के मोहभंग का दौर था और सामंती साम्राज्यवाद की संगठित शक्ति से मुठभेड़ की छटपटाहट का भी।
 इतिहास का क्रमिक विकास बताता है कि लन्दन में जुलाई, 1935 में प्रोग्रेसिव राईटर्स एसोसिएशन के गठन, जिसका प्रथम अधिवेशन ई0एम0 फॉस्टर के सभापतित्व में हुआ तथा इसके ऐतिहासिक महत्व के घोषणा पत्र के जारी होने के उपरान्त सज्जाद जहीर की लन्दन से वापसी पर तब की सांस्कृतिक राजधानी इलाहाबाद में जस्टिस वजीर हसन (सज्जाद जहीर के पिता) के आवास पर दिसम्बर, 1935 में प्रेमचन्द्र की उपस्थिति में प्र0ले0सं0 की पहले इकाई के गठन का फैसला हुआ। इसी बैठक में अप्रैल, 1936 में लखनऊ में प्र0ले0सं0 का प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन करने का भी निर्णय किया गया। बैठक में प्रेमचन्द्र व सज्जाद जहीर के अतिरिक्त मुंशी दयानारायण निगम, मौलवी अब्दुल हक, अहमद अली, डॉ0 रशीद जहांॅ, जोश मलीहाबादी व फिराक गोरखपुरी इत्यादि उपस्थित थे। एजाज हुसैन भी। प्रगतिशीलता को ठोस वैचारिक- सांस्कृतिक अभियान का रूप देने के पक्ष में व्यवहारिक रणनीति बनाने का अवसर दिया था, ”हिन्दुस्तान एकेडमी“ (इलाहाबाद) के एक समारोह ने जिसमें हिन्दी- उर्दू के अनेक विख्यात रचनाकार सम्मिलित हुए थे।
 तीव्र होते सघन संक्रमण के उस दौर में अप्रैल 36 आते-आते सृजन व बौद्धिकता के क्षेत्र में बहुत कुछ घटित हो चुका था। रूसी इंकिलाब, हाली का मुकदमा-ए-शेरो शायरी, सरसैय्यद तहरीक, प्रेमाश्रम, सेवासदन और कर्मभूमि, माधुरी, हंस तथा रामेश्वरी नेहरू की पत्रिका स्त्री दर्पण के साथ ही शेख अब्दुल्लाह की खातून (अलीगढ़) और सत्य जीवन वर्मा की पहल पर बना हिन्दी लेखक संघ फांसीवाद के विरूद्ध कला और संस्कृृति की रक्षा के लिए 1935 में पेरिस में सम्पन्न हुआ लेखकों और संस्कृति कर्मियों का ऐतिहासिक सम्मेलन, जिसने सज्जाद जहीर को गहरे तक प्रभावित किया। वे उस सम्मेलन में मौजूद थे। साहित्य, अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों मेें प्रगतिशीलता, मानवीय कला दृष्टि व जीवन मूल्य की हैसियत पाने के सघर्ष में थी। राम विलास शर्मा जिसे स्वतः स्फूर्त यथार्थवाद कहते आये हैं। सौन्दर्य के प्रति दृष्टिकोण में भी सन् 1936 के बाद जैसी न सही परन्तु तब्दीली अवश्य आई थी। नवम्बर, 1932 में सज्जाद जहीर के सम्पादन में चार कहानीकारों के कहानी संग्रह ‘अंगारे’ का प्रकाशित होना तथा मार्च 1933 में उस पर प्रतिबन्ध लग जाना। 15 अप्रैल, 1933 को महत्वपूर्ण अंग्रेजी दैनिक ”लीडर“ में अंगारे के कहानीकारों द्वारा इस प्रतिबन्ध के विरोध व भर्त्सना में एक संयुक्त बयान प्रकाशित होना, भविष्य में भी ऐसा लेखन जारी रखने का संकल्प प्रकट करना तथा यथास्थितिवादी ह्रासोन्मुख पतन शील सामंती जीवन व कला मूल्य के विरूद्ध प्रगतिशील बदलाव परक दृष्टिकोण के प्रचार- प्रसार केा रचनात्मक अभियान की शक्ल देने के उद्देश् से ”लीग ऑफ प्रोग्रेसिव आथर्स“ का प्रस्ताव इस प्रेस वक्तव्य में प्रस्तुत किया गया था। यह शोध अभी शेष है कि आखिर क्यों प्रगतिशील लेखकों की लीग बनाने के प्रस्ताव को उस समय अमली जाना नहीं पहनाया जा सका। जबकि बाद के वर्षों में प्र्रगतिशील लेखक संगठन- आन्दोलन को बनाने- फैलाने में अंगारे के इन चारों कहानीकारों की भूमिका अत्यन्त महतवपूर्ण थी और यह कि किन कारणों से सज्जाद जहीर ने प्रगतिशील आन्दोलन के दस्तावेज की हैसियत रखने वाली पुस्तक ”रौशनाई“ में ”लीडर“ में प्रकाशित बयान व उसमें ”लीग ऑफ प्रोग्रेसिव आथर्स“ के गठन के प्रस्ताव का उल्लेख नहीं किया। क्या इस कारण कि ‘अंगारे’ के प्रकाशन के बाद से ही उनके और अहमद अली के बीच मतभेद आरम्भ हो गये थे, जो आगे अधिक तीखे होते गये और यह कि लीडर में छपे बयान में मुख्य भूमिका अहमद अली ही की थी। यहांॅ उस विभाजक रेखा पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है जो अंगारे की कहानियों के कथा तत्व, उनकी वैचारिक भूमि तथा प्रेमचन्द्र के अध्यक्षीय सम्बोधन में निहित वृहत्तर सामाजिक यथार्थ की चिन्तनशीलता के बीच ख्ंिाचती दिखाई पड़ी थी, जिसने 1945 में हैदराबाद में हुए प्रगतिशील लेखकों के एक सम्मेलन में बड़े विवाद का रूप ले लिया था। यशपाल के दादा कामरेड (1943) को लेकर भी राम विलास शर्मा ने ऐसी ही एक रेखा खींची है।
 इतिहास का यह भी एक विस्मयकारी तथ्य है कि राम विलास शर्मा ने 1950 में प्र0ले0 संघ में प्रगतिशील शब्द को लेकर भी आशंका प्रकट की थी। उनकी आपत्ति प्रगतिशीलता के लिए बुद्धिवाद की अनिवार्यता पर भी थी। डॉ0 नामवर सिंह के अनुसार, “उन्होंने लेखकों को शिविरों में बांॅटने वाले इस संगठन का नाम अखिल भारतीय जनवादी लेखक संघ, अथवा परिसंघ ;।सस प्दकपं न्दपवद वत थ्मकमतंजपवद व िक्मउवबतंजपब ॅतपजमतेद्ध रखने का प्रस्ताव दिया था।“
 बहरहाल प्रगतिशील आन्दोलन के पचहत्तरवें वर्ष में कई सारे जरूरी प्रश्नों के साथ ही इस प्रकार के लुप्त हो आये प्रश्नों से भी मुठभेड़ की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। भुला दिये गये इस प्रसंग को भी याद किया जा सकता है कि लंदन (1935), लखनऊ (1936) घोषणा पत्रों के जारी होने तथा प्रेमचन्द के ऐतिहासिक अध्यक्षीय सम्बोधन से पूर्व 1935 में ही उर्दू में प्रकाशित अख्तर हुसैन रायपुरी के लेख ”अदब और जिन्दगी“ का व्यापक स्वागत हुआ। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका हिन्दी अनुवाद कराकर ”माधुरी“ में प्रकाशित किया। 1936 में नागपुर में हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में इस लेख पर आधारित घोषणा पत्र पर मौलवी अब्दुल हक और प्रेमचन्द के साथ ही पण्डित जवाहर लाल नेहरू तथा आचार्य नरेन्द्र देव ने भी हस्ताक्षर किये। लेख में अख्तर हुसैन रायपुरी का जोर इस बात पर है कि साहित्य को जीवन की समस्याओं से अलग नहीं किया जा सकता, समाज को बदलने की इच्छा जगाने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। लन्दन से जारी घोषणा पत्र पर अख्तर हुसैन रायपुरी के भी हस्ताक्षर थे। भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता विषय पर शिवदान सिंह चौहान के लेख ने जो 1937 में ‘विशाल भारत’ में प्रकाशित हुआ, प्रगतिशीलता के पक्ष में फिज़ा को साज़गर बनाने में मदद की। हालांकि नामवर सिंह ने इसे आन्दोलन को क्षति पहुंॅचाने वाला लेख बताया है। जबकि राम विलास शर्मा इसके प्रशंसक थे।
 यह छोटी सी भूमिका इस कारण कि नित नये आते हिन्दी पाठक आन्दोलन के पचहत्तरवें वर्ष में कुछ अचर्चित रह जाने वाली जरूरी सच्चाईयों से परिचित हो सके। और इसलिए भी कि प्रगतिशील आन्दोलन की सुसंगत वैचारिक शुरूआत की समग्र प्रेरणाएंॅ यूरोपीय नहीं थी, जिसका आरोप इस पर दक्षिणी पंथी प्रतिक्रियावादी धार्मिक व अन्य विभिन्न विचार क्षेत्रों तथा सत्ता समर्थक खेमों की ओर से लगाया जाता रहा है। कभी अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्रसमैन’ ने इस अभियान में अग्रणी भूमिका ली थी तथा समाज में हिंसा व आराजकता फैलाने का आरोप लगाते हुए प्रगतिशील लेखक संघ पर प्रतिबन्ध लगाने की गुहार लगायी थी। प्रगतिशील दृष्टि सम्पन्न साहित्यिक संगठन के निर्माण की चर्चा के दौर में ही ‘गोदान’ जैसे किसान केन्द्रित महाकाव्यात्मक उपन्यास की, बदलाव की चेतना जिसमें एक आग की तरह प्रवाहित है, रचना प्रक्रिया का गतिशील होना तथा लन्दन प्रवास से वापस आये सज्जाद जहीर का पहले अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए प्रेमचन्द से आग्रह करना संकेत करता है कि दोनों की बुनियादी चिन्ताओं में कोई विपरीतता नहीं थी। ठीक उन्हीं दिनों किसानों के अखिल भारतीय संगठन का अस्तित्व में आना और किसान आन्दोलन का तेज होना, इस संकेत को अधिक चमकदार बनाता है। यहांॅ अधिवेशन की तिथियों का भी अपना महत्व है। ये तिथियांॅ (9-10 अप्रैल) लखनऊ में आयोजित किसान सम्मेलन के साथ जोड़ कर निश्चित की गयी थी, कुछ किसान लेखकों के अधिवेशन में शरीक भी हुए थे। (ऐसे ही एक किसान नेता ने पंजाब में आन्दोलन के आरंभिक विस्तार में मदद की थी) तब और भी जब हम पाते हैं कि सज्जाद जहीर आन्दोलन के आरम्भिक दिनों में किसानों के बीच कवि सम्मेलन, मुशायरे तथा साहित्यिक सभाओं की परम्परा स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे जैसा कि बाद के वर्षों में कानपुर, बम्बई, अहमदाबाद, मालेगांॅव इत्यादि औद्योगिक नगरों में मजदूरों के बीच घटित होती दिखाई पड़ी। यह आयोजन आमतौर पर टिकट से होते थे। इनके विज्ञापन ‘नया पथ’ तथा दूसरी पत्रिकाओं में अब भी देखे जा सकते हैं। यानि कि ‘गोदान’ प्रगतिशीलता के महाभियान के गति पकड़ने से पहले ही प्रगतिशील रचना कर्म के उच्च प्रतिमान के रूप में सामने आ चुका था। 75वें वर्ष में इसकी आलोचना के कुछ नये आयाम अवश्य निर्मित हुए है।
 फलस्वरूप प्रगतिशील आन्दोलन के पचहत्तर वर्ष के इतिहास को गोदान व प्रेमचन्द से अलग करके नहीं देखा जा सकता। भले ही कथा सम्राट आन्दोलन का भौतिक नेतृत्व बहुत कम समय ही कर पाये हों। उसी तरह जैसे अंगारे, हंस, माधुरी, विशाल भारत, रूपाभ तथा नया अदब व नया साहित्य, इण्डियन लिट्रेचर, परिचय को अलग नहीं किया जा सकता और न ही उसे उन्नीसवीं सदी के भारतीय नवजागरण से असम्बद्ध किया जा सकता है और न सदी के उत्तरार्द्ध में अंकुरित उन बहसों से जो आस्था, ज्ञान जीवन पद्धति तथा मानव अधिकारों से सम्बन्धित थी। नवजागरण ने अपने को खोजने, पाने तथा स्वाधीनता की लालसा को बौद्धिक आवेग दिया था, कारणवष प्रेमचन्द्र का समूचा लेखन तथा प्रगतिशील आन्दोलन परस्पर पूरक होते दिखाई पड़े तो यह स्वाभाविक तरीके से हासिल हुई बड़ी उपलब्धि ही थी। सर सैय्यद तहरीक और प्रेमचन्द्र के साहित्य के समान प्रगतिशील रचनाओं ने भी समाज को प्रभावित किया तथा राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण में अपने हस्तक्षेप की ऐतिहासिकता प्राप्त की। अवश्य ही भक्तिकाल के बाद जीवन व कला कर्म को राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित करने वाला यह अकेला आन्दोलन था।
 प्रगतिशील कवियों- शायरों की रचनाएंॅ न केवल मजदूरों- किसानों के आन्दोलनों को गति व धार दे रही थी बल्कि आजादी के मतवालों के दिलों में भी आग भर रही थी। बताने की जरूरत नहीं कि इंकलाब की एक काव्य रचना में सबसे पहले राजनैतिक अर्थों में प्रयुक्त हुआ ”इंकिलाब“ शब्द कहांॅ से आया था और कैसे वह बहुत थोड़े समय में समूचे उत्तरी- पूर्वी भारत में परिवर्तनकारी उत्तेजना का प्रतीक बन गया कि उसने क्रान्तिकारी आन्दोलन के भी अति-प्रिय उद्बोधन की हैसियत प्राप्त की। एक शब्द के भीतर छिपे हुए महाप्रलय के संकेत से लोग पहली बार परिचित हुए, याद कीजिए फैज का तराना। एक अकेला शब्द दमित जनता की मूल्यवान पूंॅजी के रूप में जन संघर्ष की थाती बन गया, उसी तरह जैसे भोर, सुबह या सहर शब्द जो उम्मीद और बदलाव का रूपक बन गया। भोर या सुबह होने का मतलब केवल उजाला होना नहीं बल्कि एक अंधकारमयी सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था से उजासमयी व्यवस्था में जाना, समय का साम्यवादी होना अथवा अमीरों की हवेली का गरीबों की पाठशाला बनना, तख्तों का गिरना, ताजों का उछलना या राज सिंहासन का डांॅवाडोल होना हो गया। प्रगतिशील आन्दोलन जिन कुछ खास लक्ष्यों को लेकर आगे बढ़ रहा था, उनमें विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच अजनबीपन व दूरियों को कम करना भी था। यह कोई साधारण घटना नहीं है कि सन् 1936 के ठीक दो वर्ष बाद संघ का दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में हो रहा था। जहांॅ यदि एक ओर महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर एक संदेश के द्वारा आन्दोलन व अधिवेशन का स्वागत कर रहे थे, और जनता से अलग-थलग रहने पर अपनी आलोचना तो दूसरी ओर बंगभाषी महानगरी में उर्दू, अरबी व जर्मन भाषाओं के एक विद्वान डॉ0 अब्दुल अलीम को प्र0ले0 संघ का महासचिव बनाया गया था। उनके द्वारा दिया गया भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में लिखे जाने का विवादास्पद प्रस्ताव इसी समय आया था। बांग्ला, उर्दू, हिन्दी के अतिरिक्त अधिवेशन में पंजाबी, तेलुगू इत्यादि भाषाओं के लेखक भी सम्मिलित हुए थे। बलराज साहनी और उनकी नव वधू दमयन्ती थी। छायावाद के इसी अवसान काल में सुमित्रानन्दन पंत व निराला भी प्रगतिशीलता की ओर आकृष्ट हुए थे। अज्ञेय के आकर्षण का भी तकरीबन यही काल है। संयोग से ये तीनों ही आन्दोलन के साथ दूर तक नहीं चल पाये। पन्त ने ‘रूपाभ’ को एक तरह से आन्दोलन के लिए समर्पित कर दिया था। डॉ0 नामवर सिंह इसे संयुक्त मोर्चे की साहित्यिक अभिव्यक्ति कहते हैं। लेकिन आन्दोलन के कर्णधारों को आर्थिक चिंता उत्तरी- पूर्वी भारत में उर्दू- हिन्दी लेखकों के संयुक्त मोर्चा को लेकर थी। नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा अंजुमन तरक्की उर्दू इत्यादि के भाषागत अभियानों से दोनों भाषाभाषी श्ंाका व संशय के घेरे में थे। हिन्दुस्तानी के विकल्प ने हिन्दी भाषियों की शंका को अधिक गहरा किया था, कारणवश यदि कुछ लोगों को उर्दू लेखकों की पहल पर प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना भी उर्दू के पक्ष में कोई रणनीतिक कार्यवाही महसूस हुई हो तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए और न आरम्भिक वर्षों में आन्दोलन के प्रति उनके ठण्डे रवैये पर। यकीनी तौर पर थोड़े अन्तरालोपरान्त वे बड़ी संख्या में आन्दोलन के साथ आये, उनकी सम्मिलिति से संगठन व आन्दोलन दोनों को अप्रतिम बल व विस्तार प्राप्त हुआ। अपनी शिनाख्त के प्रति संदनशील रहते हुए वे एक दूसरे के निकट आये। फलस्वरूप औपनिवेशक साम्राज्यवाद, फासीवाद, युद्ध सांप्रदायिकता, धर्मोन्माद, बंगाल के महादुर्भिंक्ष के खिलाफ तथा जनसंघर्षों के विविध अवसरों पर दोनों भाषाओं के रचनाकार साझे मंच पर दिखाई पड़े। फासीवादी युद्ध के विरूद्ध उर्दू- हिन्दी लेखकों का साझा बयान इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में सामने आया, जो नया साहित्य में प्रकाशित हुआ। अब इसको क्या कीजिए कि जिस प्रकार अनेक लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकारों ने अन्तिम सांॅस तक प्रगतिशील आन्दोलन से अपनी सम्बद्धता को खण्डित नहीं होने दिया उसी प्रकार विडम्बनाओं ने भी इतिहास का साथ नहीं छोड़ा। देश विभाजन से पूर्व यदि 1945 में उर्दू के प्रगतिशील लेखकों का सम्मेलन हैदराबाद में हो रहा था तो सन् 1947 में विभाजन के ठीक एक माह बाद हिन्दी के प्रगतिशील रचनाकारों का अधिवेशन साम्प्रदायिक तनाव के बीच इलाहाबाद में आयोजित हुआ। उसी इलाहाबाद में जहांॅ प्रगतिशील लेखन आन्दोलन की नींव पड़ी थी, रमेश सिन्हा द्वारा लिखित जिसकी रिपोर्ट कम्युनिस्ट पार्टी के साप्ताहिक ”जनयुग“ तथा अन्य पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हुर्ठ। उसी अधिवेशन में उर्दू का एक नौजवान जोशीला शायर (अली सरदार जाफरी) उर्दू लेखकों के अकेले प्रतिनिधि के रूप में हिन्दी के प्रगतिशील लेखकों को समूचे सहयोग का आश्वासन देते हुए उनसे राष्ट्र भाषा के मुद्दे पर जल्दबाजी में कोई फैसला न लेने की मार्मिक अपील कर रहा था। जबकि 31 अगस्त को बम्बाई में हुई प्रलेस की बैठक में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि पाकिस्तान में उर्दू के साथ हिन्दी को भी राष्ट्रभाषा बनाये जाये। बैठक में उपस्थित सभी लेखक उर्दू के थे। बम्बई में ही 24 सितम्बर की बैठक में अली सरदार जाफरी ने इलाहाबाद सम्मेलन की रिपोर्ट प्रस्तुत की और कहा कि हिन्दी लेखकों में उर्दू का उतना विरोध नहीं है जितना हम समझते हैं। अलग- अलग अधिवेशनों का यह सिलसिला बाद में भी जारी रहा। दूसरे रूपों में भाषा विवाद भी जारी रहा। उत्तर प्रदेश में माहौल ज्यादा उत्तेजना पूर्ण था। कभी-कभी कटुता इतनी गहरी हुई कि एक ही संगठन के लोग भिन्न शिविरों में विभाजित एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंकते नजर आये, जिसका दुखद उदाहरण प्र0ले0 संघ के स्वर्ण जयन्ती समारोह (अप्रैल, 1986, लखनऊ) में देखने में भी आया। गौरवपूर्ण इतिहास के पचहत्तरवें वर्ष का यथार्थ यह है कि प्रमुख रूप से कुछ उर्दू लेखकों द्वारा आरम्भ किये गये इस आन्दोलन में उर्दू रचनाकारों की भागीदारी लगातार कम होती गयी है। वैसे केन्द्रीय धारा के लेखकों एवम् महिला रचनाकारों की दूरी भी आन्दोलन से बढ़ी है।
 भाषा के प्रश्न पर कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ देने वाले राहुल सांकृत्यायन ने देश की तमाम जनपदीय बोलियों को जातीय भाषा मानते हुए उनके अपने- अपने प्रदेश बनाने का सुझाव रखा तो उर्दू के मुद्दे पर उनसे सहमति रखने वाले राम विलास शर्मा ने इस पर घोर आपत्ति की। विडम्बना यहांॅ भी है। पचहत्तर वर्ष के पूर्णता काल में यह मुद्दा नया ताप ग्रहण कर रहा है। जनपदीय बोलियों की रक्षा और अधिकार के प्रति संवेदनशीलता का विस्तार हुआ है। जाहिर सी बात है ऐसे में प्रगतिशील लेखक संघ को निश्चित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत पड़ सकती है। यों बम्बई प्रलेस की बैठक में प्रो0 मुम्ताज हुसेन ने भी कुछ ऐसे ही प्रस्ताव रखा था।
 पूरी पौन सदी में विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच जीवन्त संवाद- गतिशील आवाजाही का उद्देश्य भले पूर्णतः न प्राप्त कर पाया हो, इन भाषाओं का विशाल एका बनाने का स्वप्न जरूर पूरा हुआ। जहीर कश्मीरी व रंजूर जैसे प्रखर जनवादी रचनाकार देने वाला आन्दोलन कश्मीरी भाषा में खास कारणों से अवश्य शून्य तक पहुंॅच गया। डोगरी में उसकी गतिशीलता बनी रही। देखने वालों ने वह मंजर भी देखा कि उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से सम्बन्ध रखने वाले परिवार का एक युवा तेलंगाना के निर्माण तथा तेलुगू- उर्दू भाषी आयाम के अधिकारों के लिए जुझारू संघर्ष के मैदान में था। वह अपने उर्दू गीतों से तेलुगू भाषी जनता के दिलों में आग भर रहा था। अकेले मख्दूम के कारण तेलुगू भाषी क्षेत्र में प्रगतिशील आन्दोलन के विस्तार में बड़ी मदद मिली। ठीक उसी तरह जैसे मलियाली क्षेत्र में वल्लत्तोल और बिहार के एक बड़े क्षेत्र में नागार्जुन के कारण। बंगाल में हीरेन मुखर्जी की वजह से तो पंजाब में फैज के प्रयासों से। बम्बई में अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानिवी, मजाज इत्यादि के कारण। जैसे वामिक जौनपुरी की अकेली नज्म ”भूका है बंगाल रे साथी“ से प्र0ले0 संघ व इप्टा दोनों तहरीकों को बड़ी शक्ति प्राप्त हुई। शील के इस गीत से भी कि ”नया संसार बसायेंगे, नया इंसान बनायेंगे.......“
 इस लम्बे दौर में विस्मृति के धंुधलके में चले गये आन्ध्र प्रदेश के वामपंथी- प्रगतिशील संस्कृति कर्मी डॉ0 कृष्णा राव ने अपने एक नाटक के जरिये आन्ध्र प्रदेश के किसानों को उद्वेलित व संगठित करने का जो ऐतिहासिक कारनामा अंजाम दिया, उसे याद रखना आवश्यक है। कृष्णा राव ही उस नाटक के लेखक, निदेशक व केन्द्रीय पात्र थे। इससे इप्टा व प्रलेस दोनों के प्रसार में मदद मिली। एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय डॉ0 राजबहादुर गौड़ को भी हम याद करते चलें।
 आन्दोलन की शुरूआती सैद्धान्तिकी में ही विभिन्न कला माध्यमों के बीच उद्देश्यपरक वैचारिक रागात्मकता की जरूरत को रेखांकित किया गया था, उस ओर उत्तेजक अग्रसरता आन्दोलन की विशिष्ट उपलब्धि है। प्रमुख रूप से साहित्य के पारम्परिक चरित्र को बदलते हुए आन्दोलन ने केन्द्रीय धारा के विभिन्न कला माध्यमों में सक्रिय लोगों, बौद्धिकों व विद्वानों को भी गहरे तक प्रभावित किया था। मई 1943 में इप्टा के अस्तित्व में आने से स्वप्न को नये रंग मिले थे। साहित्य, संगीत, रंग कर्म को सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति के पक्ष में इस तरह एकाकार होते कब किसने देखा था। कला जीवन में उत्साह, उमंग, ऊर्जा और चेतना भर रही थी। आनन्दित होने के क्षणों से गुजरते हुए व्यवस्था द्वारा सताये गये गरीब जन संघर्ष का संकल्प ले रहे थे। लेखन आन्दोलन अपनी समूची सदाशयता के बावजूद लोक साहित्य में वैसी हलचल घटित नहीं कर सका था जैसी जन नाट्य आन्दोलन ने लोक संगीत, लोक नाट्य तथा लोक साहित्य में संभव की। रंगमंच के साथ मजदूरों किसानों का ऐसा जीवन्त रिश्ता पहले कब बन पाया था। इसे संभव करने में प्रगतिशील रचनाकारों की सक्रिय भूमिका थी। हम यहांॅ प्रलेस द्वारा ‘मई दिवस’ के आयोजन की परम्परा को भी याद कर सकते हैं।
 ”आवामी थियेटर और प्रगतिशील लेखकों के आन्दोलन में चोली दामन का साथ था। प्रगतिशील लेखकों की संस्था के बहुत से कार्यकर्ता आवामी थियेटर में भी काम करते थे और उसे संगठित करने में उन्होंने बहुत अहम हिस्सा लिया।“
 मराठी लम्बी कविता पावड़ा और तेलुगू की बुर्रा कथाओं ने प्रासंगिकता के नये शिखर प्राप्त किये। अन्नाभाऊ साठे के पावड़े सर्वाधिक लोकप्रिय हुए। साठे प्रलेस के सक्रिय साथी थे। अवश्य ही विविध लोक नाट्यांे को नया जीवन प्राप्त हुआ, परन्तु उसके पीछे मुख्य भूमिका लोक नाट्य कर्मियों की थी। इप्टा की सफलता ने फिल्म निर्माण की ओर अग्रसरता को सहज बना दिया। इस क्रम में ख्वाजा अहमद अब्बास की किसान केन्द्रित फिल्म ”धरती के लाल“ एक विस्फोट की तरह थी। इस बिन्दु पर जो बात ध्यान देने की है वह यह है कि इन तमाम पड़ावों के दौरान होरी, धनिया और गोबर के तनावों व संघर्षों को केन्द्रीयता प्राप्त रही। एक तरह से ‘गोदान’ आन्दोलन का सहयात्री बना रहा। कभी-कभी पथ प्रदर्शक भी। इससे दूसरी सामाजिक समस्याओं, राजनैतिक चुनौतियों, सांस्कृतिक संकटों व अन्तर्राष्ट्रीय व्याकुलताओं को नेपथ्य में ढकेल देने का तात्पर्य नहीं ले लेना चाहिए।
 विशिष्टताओं की बात जब चल ही निकली है तो यह जिक्र भी होता चले कि प्रगतिशील राजनैतिक शक्तियांॅ जिन मोर्चों पर विजय की मुद्रा बनाये नहीं रख पायीं असफलता उनकी नियति बनी प्रगतिशील साहित्यिक मोर्चे या लेखन आन्दोलन ने उन्हीं मोर्चांे पर ताबनाक कामयाबियांॅ अर्जित की।
 इनमें सबसे प्रमुख है साहित्य में दक्षिण पंथी साम्प्रदायिक पुनरूत्थान वादी शक्तियों का प्रगतिशील जनवादी रचनाकारों की सक्रियता के कारण हाशिये पर चले जाना। जातिवादी, नस्लभेदी, स्त्री विरोधी मानसिकता का व्यापक तिरस्कार। जनविरोधी सामंतवादी शक्तियों के विरूद्ध निरन्तरता प्राप्त करती सजगता, अन्ततः साहित्य में उनका अपदस्थ होना, साहित्यिक जन-तांत्रिकता की वैभवपूर्ण सम्पन्नता के बीच ‘जन’ का केन्द्रीयता प्राप्त करना। बताने की आवश्यकता नहीं कि भारतीय राजनीति के बड़े फलक पर जहांॅ ‘जन’ बहुलता में सत्ता की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल होता रहा है, अपने बारे में अराजकशोर के बीच उसकी निःस्वरता आह में भी नहीं बदल पाती। जबकि साहित्य में उसकी वंचना, अभाव, पीड़ा, चीख, संघर्ष और प्रतिवाद सब लगातार घटित होता आया है। शब्द जैसे उसके भीतर उतर पाने की अपूर्व सामर्थ्य से समृद्ध हुआ।
 ऐसा सत्ता के किसी शिखर पर पहुंॅचने के लिए नहीं बल्कि प्रगतिशीलता की कसौटी के रूप में स्थापित हुई सामाजिक प्रतिबद्धता तथा यथार्थ के प्रति संवेदनशील, मानवीय वैज्ञानिक दृष्टि के कारण संभव हो पाया। यानि ऐसा साहित्यिक जिम्मेदारी के तहत हुआ। एक मोर्चे पर जन की गुहार यदि संभावना पूर्ण अवसरों का निर्माण करती है तो साहित्य में जन प्रतिबद्धता कई अवसरों से वंचित। उदाहरणों की कमी नहीं है। खतरे और भी हैं। तनिक सी जल्दबाजी या असावधानी के कारण ‘जन’ से प्यार पर लिजजिली भावुकता या सपाट समझ का आरोप भी लग सकता है। यानि ”खुदा मिला न विसाले सनम“। बीते पचहत्तर साल ऐसी कई त्रासदियों के साक्षी हैं। इसे प्रगतिशील आन्दोलन की उपलब्धि ही कहा जायेगा कि विपरीतता के बावजूद आन्दोलन से जुड़े या उसकी आंॅच से तपे रचनाकर जनसंघर्षों से भले दूर होते चले गये हैं (वह भी एक दौर था जब अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन में भारत का प्रतिनिधित्व मख्दूम ने किया तो पाकिस्तान का फैज ने। बाद के वर्षों में भी मजदूर मोर्चे पर लेखकों की सक्रिया जारी रही) जन से उसी अनुपात में विमुख नहीं हुए। वह साहित्य के केन्द्र में है। जबकि भारतीय राजनीति में वह हाशिये पर चला गया है। तकरीबन यही स्थिति दलित व स्त्री की भी है। अधिकांश राजनैतिक दलों के लिए ये सत्ता सोपानों से अधिक महत्व नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं। जबकि साहित्य में ये अनिवार्यता प्राप्त कर रहे स्थाई विमर्श का विषय है। विमर्श वृहत्तर संदर्भों से सम्बद्ध हुआ है। अनुभूति परक संवेदनशीलता तथा वैचारिक दायित्व बोध जिसका खास अवलम्ब है। जहांॅ समानता और आजादी किसी एक फूल या रंग का नाम नहीं बल्कि समग्र बदलाव का प्रतीक है। रात से भोर की ओर जाने की यात्रा जैसा अल्पसंख्यकों तथा जनजातियों के सामाजिक यथार्थ से यदि साहित्य वंचित नहीं रह गया तो इसमें प्रगतिशील आन्दोलन का कुछ योगदान अवश्य है, जबकि स्त्री मुक्ति के स्वप्न को फ्रायडवादी, यौनकेन्द्रित, मनोविज्ञान एवम् दलित दमित वर्ग के लिए नई सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की चेतना को एकान्तिकता, आध्यात्मवादी परोपकारी मानवतावाद से बचाने की चुनौती सामने थी।
 प्रगतिवाद के उभार के तीव्रतम दौर में ही प्रयोगवाद भी बहुत गतिशील रहा है। इसे सिद्धान्त विशेष की शक्ति ही माना जायेगा कि प्रयोगवाद ने प्रगतिशील रचना कर्म को प्रभावित तो अवश्य किया परन्तु वह कोई कठिन चुनौती खड़ी नहीं कर पाया। अवश्य ही अनेकानेक प्रगतिशील रचनाकारों ने परिपाटी तथा शिल्पवादी आवेग से मुठभेड़ करते हुए भाषा व शिल्प के स्तर पर प्रयोग किये। कुछ आलोचक शिल्पवाद को साम्राज्यवादी कुचक्र घोषित करते रहे। अन्तर्वस्तु का पुराना लोक जैसे अदृश्य ही हो गया। कथा परिदृश्य पर ग्रामीण परिवेश के प्रभुत्व, सामान्य पारिवारिक व उपेक्षित जातीय पृष्ठभूमि से आये पात्रों उनके संघर्ष ने पाठकों को पहली बार अपनी जमीन का साहित्य होने की अनुभूति दी। मध्यवर्गीय वर्चस्व ने इसे थोड़ा धुंॅधलाया अवश्य फिर भी वर्णाश्रम व्यवस्था पर प्रहार तथा विस्थापित स्त्री की स्थापना ने यह भरोसा तो दिया ही कि समाज बदल भी सकता है। यथार्थ की खोज में पेड़ से गिरे फल पर उन्होंने भरोसा नहीं किया। सम्पूर्ण मनुष्य के यथार्थ को उद्घाटित करने के क्रम में जीवनानुभव और गहन अन्वेषण के साथ वैज्ञानिक पुनर्रचना की दिशा में वो गये। प्रगतिशील जनवाद की तीव्रता के क्षणों में कला के प्रति बढ़ते सम्मोहन से जो आत्मसंघर्ष निर्मित हुआ उसने कई यादगार कृतियों के लिए फिज़ा साज़गार की।
 प्रगतिशील जीवन दर्शन से हासिल हुई समय व समाज को समझने की अन्तर्दृष्टि ने स्वानुभूति को सामूहिक अनुभूति में रूपान्तरित करते हुए उसे उच्चतम स्तरों तक ले जाने की चुनौती उन्होंने स्वीकार की। दृष्टि की संकीर्णता तथा स्थानीयता के अतिक्रमण की ओर जाते हुए वे जिस विराटता की ओर गये उसने उन्हें सर्वदेशीय विश्व दृष्टिकोण तक पहंॅुचाया। स्थापना के दिन से ही प्रगतिशील आन्दोन के निश्चित अन्तर्रष्ट्रीय सरोकार रहे हैं। ये सरोकार वृहत्तर भारतीय चिंता के रूप में स्थापित हुए, यह याद रखने वाली घटना है। फै़ज़ की कई नज़्में जिसका बेहतर उदाहरण है। शमशेर की कुछ कविताएं भी इस ओर ध्यान खींचती है। विश्वदृष्टि का अर्थ भारतीय सीमाओं के पार की सच्चाईयों को पकड़ना ही नहीं, वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में यथार्थ को देखना था।
 आन्दोलन के कम्युनिस्ट पार्टी से प्रेरित या उससे निर्देशित होने के आरोपों को झुठलाने के प्रयास अब लगभग नहीं होते। स्वयम् संगठन के अन्दर पार्टी की नीतियों से आन्दोलन के प्रभावित होने के मुद्दे पर विवाद उठना अतीत की बात हो चुकी है। पार्टी के प्रति उन्मुखता से जहांॅ एक ओर आन्दोलन के व्यापक विस्तार में मदद मिली वहीं उसकी नीतियों से प्रभावित होने ने कई आघात भी पहुंॅचाये। विश्व युद्ध व भारत छोड़ों आन्दोलन के प्रति दृष्टिकोण, पाकिस्तान की मांॅग का समर्थन,प्रगतिशील आन्दोलन के संस्थापक सज्जाद जहीर को पार्टी निर्माण के लिए पाकिस्तान भेजना, उनका वहांॅ, फैज तथा कई सैनिक अधिकारियों के साथ राजद्रोह के आरोप में पकड़े जाना, कांग्रेस के प्रति भिन्न अनुपातों में आकर्षण का लगातार बने रहना, अन्ततः आपातकाल की हिमायत ने भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के सामान्य नागरिकों, विशेष रूप से मध्य वर्ग के मनोविज्ञान पर नकारात्मक प्रभाव छोड़े। हालांकि इन कारणों से कम्युनिस्ट पार्टी को जितनी क्षति उठानी पड़ी उतनी प्रगतिशील आन्दोलन को नहीं, फिर भी उसे आघात तो पहुंॅचते ही रहे। पार्टी बीस धड़ों में विभाजित हुई तो आन्दोलन प्रमुखतः तीन धड़ों में। जहांॅ आन्दोलन नहीं है, वहांॅ पार्टी भी नहीं है, परन्तु जहांॅ पार्टी नहीं है वहांॅ आन्दोलन शेष है। मध्य प्रदेश जिसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जम्मू, मालेगांॅव, भिवण्डी तथा पाकिस्तान के भी कुछ शहर। यह स्थिति जनता के विराट हृदय से समझ भरे सम्पर्क के कारण ही संभव हो पायी है। जनाकांक्षाओं से जुड़ने के लिए हथियार उठाना अथवा सड़कों पर उत्तेजक नारों के साथ उतरना ही हमेशा जरूरी नहीं होता, आकांक्षाओं की प्रभावपूर्ण कलात्मक अभिव्यक्ति, जनवादी लयात्मकता वंचित वर्ग के लोगों को साथ करने में सहायक हो सकती है। भौतिक आवश्यकताओं से अलग जनता की सांस्कृतिक आकांक्षाएंॅ भी होती हैं। बिहार, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र इत्यादि में प्रगतिशीलों ने जनता की सांस्कृतिक आकांक्षाओं की भी चिंता की है। प्रश्न इतना भर है कि नेतृत्व किन लोगों के पास है।
 संयोग नहीं हालात की स्वाभाविक परिणति है कि ऐसे ही समय में जब विशाल कम्युनिस्ट या वामपंथी एका की बात चल रही है तभी वृहद सांस्कृतिक मोर्चा बनाने की जरूरत भी शिद्दत से महसूस की जा रही है। सांस्कृतिक मोर्चे के निश्चित राजनैतिक परिप्रेक्ष्य हो सकते हैं। सावधानी चाहिए तो बस इतनी ही कि वह पार्टी की जरूरतों पर आधारित न हो। ”साहित्य को राजनीतिक चेतना से सम्पन्न बनाने का अर्थ साहित्य- सृजन और चिंतन में राजनीतिक संघर्ष की रणनीति और कार्य नीति का अमल नहीं है।“
 समय का साम्यवादी होना दिवास्वप्न की तरह है तो स्टालिनग्राड के मोर्चे पर हिटलर की सेनाओं के ध्वंस से उत्साहित होकर मख्दूम का झूम-झूमकर गाया गीत ”यह जंग है जंगे आजादी“ दिलों में पहले जैसा ओज भरने की सामर्थ्य खो चुका है। सुमन की लालसेना पूंॅजीवाद की चाकरी में है तो फैज के आश्वासनों के बावजूद सहर अब भी बहुत दूर है, एक हथौड़े वाले से कई हथौड़े वाले और फौलादी हाथों वाले होते चले जाने के बावजूद पूंॅजीवाद का कुछ नहीं बिगड़ा है। कई दिनों बाद घर में दाने आने की दारूण स्थिति अब भी शेष है। वाम दिशा विहान दिशा हो आयी है। कारण वश प्रगतिशील आन्दोलन की प्रासंगिकता भी शेष है और उसकी जरूरत भी। उसी तरह जैसे गोदान की। बावजूद इसके यह नहीं कहा जा सकता कि भोर का स्वप्न अपना समूचा सम्मोहन खो चुका है, भूमण्डलीकरण और बाजार वाद द्वारा प्रस्तुत कलाकर्म को हाशिये पर डालने, इलेक्ट्रानिक चैनल्स द्वारा उसे जीवन से बाहर निकालने तथा सांस्कृतिक प्रदूषण की चुनौती ने प्रगतिशील आन्दोलन, सांस्कृतिक एका तथा अमानवीय लूट के विरूद्ध वैचारिक सृजनात्मकता तथा मानवीय संवेदना के हस्तक्षेप दोनों को अधिक जरूरी बनाया है। बदलाव की इच्छा आवेगपूर्ण हो आई हो तो संकीर्णता व अतिवाद के खतरे पैदा हो ही जाते हैं। कविता नारा बन जाती है। लड़ाई के दौर में नारों की अपनी भूमिका होती है। यह लड़ाई का दौर है। नारे फैज ने भी लगाये, शमशेर, नागार्जुन, मख्दूम, मजाज और केदारनाथ अग्रवाल ने भी, शिवमंगल सिंह सुमन, शील, मजरूह, तोप्पिल भासी और कैफी आजमी, नियाज हैदर ने भी। नारों से साहित्य को उतनी बड़ी क्षति नहीं पहुंॅचती जितनी नारे न होने पर जनसंघर्षों को, इंसान की भलाई की लड़ाई को पहुंॅच सकती है। इससे साहित्य को नारा बनाने की पक्षधरता का तात्पर्य नहीं लेना चाहिए, कहना मात्र इतना है कि यदि साहित्य का इंसानी भलाई से कोई सरोकार है तो नारों के लिए कुछ गंुजाइश तो होनी ही चाहिए। नारा भी कलात्मक अनुभव हो सकता है। अब इसे सम्मानीय आलोचक रोमांटिक और अंधलोकवादी रूझान कहे तो कहें।
 हबीब जालिब की शायरी का बड़ा हिस्सा नारा है। फैज की कुछ नज्में भी। पाकिस्तान की निरंकुश सत्ताएं दोनों से लगातार भयभीत रही। वहांॅ प्रगतिशील आन्दोलन को अपनी यात्रा कठिन परिस्थितियों में तय करनी पड़ी। रावल पिण्डी साजिश केस (1948) ने हालात को अधिक दुरूह बनाया। प्रगतिशील लेखक संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। कई लेखक गिरफ्तार कर लिये गये (1954) इनमें वहांॅ के राष्ट्रीय सचिव अहमद नदीम कासमी भी थे। लाहौर में प्रगतिशील लेखकों के पहले अखिल पाकिस्तान सम्मेलन (नवम्बर, 1949) पर लाठी डण्डों से हमला किया गया। लेखकों पर पाकिस्तान-इस्लाम विरोधी नारों का इल्जाम लगाते हुए उनके विरूद्ध मुकदमें दर्ज हुए। रावल पिण्डी साजिश केस के बाद चालीस मस्जिदों के इमामों ने फैज व दूसरे प्रगतिशील लेखकों के खिलाफ बयान जारी किये। यहांॅ तक कि लन्दन में प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से एक दीन मुहम्मद तासीर भी मुखालिफों में शामिल हो गये। पंजाब के गवर्नर के रूप में जिनके पुत्र सलमान तासीर की हाल ही में हत्या हुई है। मतलब यह है कि जिनपे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे। पाकिस्तान में प्रलेस द्वारा आयोजित मई दिवस के जलसों पर भी हमले किये गये।
 पाकिस्तान बनने के तुरन्त उपरान्त तक उस क्षेत्र यानि कि पश्चिमी पाकिस्तान की कई भाषाओं जैसे सिन्धी, पंजाबी, पश्तो, मुल्तानी, सरायकी इत्यादि भाषाओं में प्रगतिशील आन्दोलन की जड़े कहीं गहरी, कहीं कम गहरी हो चुकी थी। पूर्वी पाकिस्तान की भी लगभग यही स्थिति थी। वहांॅ आन्दोलन के कार्यकर्ता अब भी मौजूद हैं। कुछ साल पहले तक सिन्धी अदबी संगत की शाखाएंॅ सिन्ध से बाहर रावल पिण्डी, कोयटा तथा जद्दा तक में सक्रिय थी। कई बड़े शहरों में प्रगतिशील लेखक कहीं मूल कहीं बदले हुए नामों वाले संगठनों के बैनर तले संगठित हैं। स्वर्ण जयन्ती समारोह (लखनऊ 1986) में वहांॅ से बड़े प्रतिनिधि मण्डल का आना और वहांॅ स्वर्ण जयन्ती का भव्य आयोजन तथा 1936 से 1986 तक के अधिवेशनों की रिपोर्टों पर आधारित दस्तावेज का प्रकाशित होना, एकतरफा, मंशूर, अफकार, आज, फुनून, सीप जैसी पत्रिकाएं, वहांॅ रचे जा रहे साहित्य यह संकेत देते रहे हैं कि 1936 में रौशन चिंगारी वहांॅ बुझी नहीं है। साहित्य का केन्द्रीय स्वर अब भी प्रगतिशील है। साम्राज्यवादी विस्तार, पूंॅजीवादी लूट, जन दमन, एकाधिकार वाद, लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन, स्त्रियों की बाड़े बन्दी तथा धार्मिक उन्माद उससे पैदा हुआ आतंकवाद, उसकी व्यावसायिकता के विरूद्ध लेखक खतरे उठा कर भी लिख रहे हैं। महिला रचनाकारों की साहसिकता ने हदों को तोड़ा है और साबित किया है कि संगठन के बगैर भी आन्दोलन चलते रह सकते हैं। पाकिस्तान के प्रगतिशील रचनाकारों ने अमन व मित्रता के पक्ष में शस्त्रों की होड़ तथा युद्ध विरोधी अभियानों की भी अगुवाई की हैं पाकिस्तान के रचनाकारों ने प्रगतिशीलता के संदेश को कई अमरीकी, यूरोपीय तथा एशियाई देशों में पहंॅुचाने की पहल अर्जित की है। कहीं- कहीं संगठन भी मौजूद है, जैसे लन्दन में जिसने 1985 में स्वर्ण जयन्ती का भव्य आयोजन भी किया। ब्वउउमदजउमदज नाम से एक दस्तावेज भी प्रकाशित किया। पत्रिकाएं तो निकलती ही हैं। निःसन्देह प्युपिल्स पार्टी के शासन काल में प्रलेस की गतिविधियांॅ ज्यादा तेज हुई। बंगाल, केरल, त्रिपुरा में वामपंथी शासन के बावजूद ऐसा नहीं हो पाया यह अलग बात है।
 भारत हो या पाकिस्तान संकरी संकीर्णता ने आन्दोलन को जो क्षति पहुंॅचाई वह अपनी जगह। उल्लेखनीय है कि फैज पाकिस्तान प्र0ले0सं0 से उसके नेतृत्व तथा भारत में कुछ रचनाकार राम विलास शर्मा व अली सरदार जाफरी के अतिवादी रवैये के कारण ही अलग हुए थे। अति उदारता ने भी आन्दोलन को बहुत नुकसान पहुंॅचाया, कृश्नचन्दर के सचिव काल में तो जैसे अराजकता की स्थिति पैदा हो गई थी। राजीव सक्सेना के काल में भी लगभग यही स्थिति थी। भीष्म साहनी तथा डॉ0 कमला प्रसाद का नेतृत्व आन्दोलन की बड़ी उपलब्धि है। सज्जाद जहीर के समय की अखिल भारतीयता आन्दोलन को उन्हीं के काल में प्राप्त हो पायी। उनकी सक्रियता ने आन्दोलन में जैसे नये प्राण फूंॅक दिये। बांॅदा, गया और जबलपुर- जयपुर के अधिवेशनों ने आन्दोलन को विनाश की हद तक पहुंॅचने से बचाया। सिकुड़ती हुई सीमाओं के बीच गया सम्मेलन ने संघ को महासंघ बना दिया। उत्तर प्रदेश में 1975 के बाद आया नया उभार यहीं से प्रेरित था। जबलपुर का अधिवेशन (1980) इस अर्थ में महत्वपूर्ण साबित हुआ कि उसने कम से कम मध्य प्रदेश में संगठनात्मक लक्ष्यों की पूर्ति तथा आन्दोलन के फैलाव में बड़ी मदद की। समूचे उत्तरी पूर्वी व पश्चिमी भारत में आन्दोलन, उससे भी ज्यादा प्रगतिशील लेखन के पक्ष में समर्थन का उत्तेजनापूर्ण वातावरण बनाने में लघु पत्रिका आन्दोलन ऐतिहासिक महत्व का योगदान दे रहा था। ”पहल“ की उसमें विशेष भूमिका थी। बहुत कुछ हार कर खास वर्गों का हित पोषण करने वाली अन्याय परक व्यवस्था के विरूद्ध शब्दकर्म का वह महा अभियान अब अतीत का यथार्थ हो गया है। लेकिन धमनियों में शिथिल होते रक्त को प्रवाह देने का सामर्थ्य अब भी उसके पास हैं। सच पूछिये तो आधुनिकता- स्वच्छंदतावादी, विसर्जोन्मुखी प्रवृत्तियों को, तथा निराकारी आत्मोन्मुखी शमशानी मनोविज्ञान के धराशाई होने में लघुपत्रिका आन्दोलन की शक्ति प्रमुख थी। ऊर्जा समानान्तर सिनेमा से भी मिल रही थी। ”प्रगतिशील आन्दोलन अपनी भूमिका निभा चुका है, उसे भंग कर देना चाहिये“ का उद्घोष करने वाली विसर्जनवादी प्रवृत्ति विभाजन के बाद ज्यादा सक्रिय दिखाई दी थी। हताश होकर उसका स्वयम् विसर्जित हो जाना इतिहास की बड़ी घटना है। कमोवेश यही स्थिति लगभग इसी काल में पारम्परिकता के पूर्ण निषेध आधुनिकतावाद पोषित अमूर्त्तता, कलावाद, वैयक्तिकता, सामाजिक उद्देश्य से विमुखता, अकहानी, नई कहानी, प्रतीक वाद तथा साहित्य की स्वायत्तता आदि प्रवृत्तियों का संगठित आक्रमण भी तेज हुआ। उर्दू में अपेक्षाकृत यह ज्यादा सघन था। इससे आन्दोलन को कुछ चोट अवश्य पहुंॅची। परन्तु इसका अंजाम भी विर्सजनवाद के जैसा ही हुआ। सामाजिक प्रतिबद्धता अग्नि परीक्षा के बाद कुन्दन सी आभामयी हो गयी। 1953 के दिल्ली व 1954 के कराची अधिवेशनों में इसका खास नोटिस लिया गया।
 पूंॅजीवादी प्रलोभनों, अमरीका प्रेरित कल्चरल फ्रीडम के नारों, तीव्र होते व्यवसायीकरण और महंगाई में आटा गीला हो जाने के समान सोवियत संघ तथा दूसरी साम्यवादी सत्ताओं का पतन, लाखों- लाख लोगों को सम्मोहित करने वाला सुनहरा स्वप्न ही बिखर गया, निराशाजन्य अवसद के बीच आन्दोलन की यात्रा अधिक कठिन हो गयी। कामरेड का कोट चीथड़े हो गया। वोदका का मादक स्वाद जीवन की कसैली याद जैसा हो आया। इन हालात में यगाना चंगेजी की वह फब्ती कौन दोहराता जो उन्होंने 1857 के संदर्भ में मिर्जा गालिब पर कसी थी
 शहजादे पड़े फिरंगियों के पाले
 मिर्जा के गले में मोतियों के माले
या यह कि -
 तलवार से गरज न भाण्डे से गरज
 मिर्जा को अपने हलवे माण्डे से गरज
 उपलब्धियों के कई तमगो के बीच एक दाग भी है, लेखकों, विशेष रूप से युवा लेखकों के हित में आन्दोलन या प्र0ले0सं0 का कोई ठोस काम न कर पाना। प्रकाशकों के शोषण से उन्हें बचाने के लिए कोई कारगर रणनीति न अपना सका। एक केन्द्रीय प्रकाशन गृह और पत्रिका का निरन्तरता न प्राप्त कर पाना। प्रलेस के अधिवेशनों की रिपोर्टों का संकलित न हो सकता। दाग और भी है लेकिन यह दाग़ धब्बे दिखाने का अवसर नहीं है। इसकी जिम्मेदारी किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह पर नहीं, आन्दोलन में शामिल सभी रचनाकारों पर आती है। यह समय आत्मविश्लेषण का जरूरी है। गहरे आत्ममंथन का समय है। जो आग या मशाल 1936 में रौशन हुई थी, उसकी आंॅच कम हुई है पर वह बुझी नहीं है। उस आग में, मशाल में पूर्वजों ने इतनी आंॅच और रौशनी भर दी है कि वह आसानी से बुझेगी भी नहीं, नये रचनाकार आते रहेंगे वो उसके होने से इंकार करेंगे और उसकी तपन से प्रभावित भी होते रहेंगे। कोई भी रचनाकार भले वह कितना ही ऊर्जावान हो परम्परा से कटकर बहुत दूर तक नहीं जा सकता। जब परम्परा की याद आयेगी तो प्रेमचन्द याद आयेंगे, जब प्रेमचंद याद आयेंगे तो प्रगतिशील लेखन आन्दोलन याद आयेगा। यह स्मरण की उस आग को बाकी रखेगा, यों तो जो लिखा जा रहा है उसका बहुतांश ही उसके शेष रह जाने का संकेत है।
 डॉ0 नामवर सिंह ने 1986 में प्रगतिशील आन्दोलन की पचासवीं वर्षगांॅठ के अवसर पर लिखे गये अपने एक लेख में रेखाकित किया है कि ”वस्तुतः सन् 1936 के बाद का हिन्दी साहित्य प्रगतिशील आन्दोलन के सचेत और संगठित हस्तक्षेप का पात्र है“ और उसे हम चाहें तो वाल्टर वेन्जामिन के शब्दों में ”इतिहास के नैरंतर्य में विस्फोट की संज्ञा दे सकते हैं....“
 इतिहास के इस नैरंतर्य को आगे जारी रखने की कठिन चुनौती आन्दोलन के सहयात्रियों के सम्मुख है। डा0 नामवर सिंह ने लेख की शुरूआत में यह भी याद दिलाया है कि ”पचास साल पहले, जैसी और जिन चुनौतियों का सामना करने के लिए, प्रगतिशील लेखक संघबद्ध हुए थे, आज वैसी ही, किन्तु उनसे भी अधिक गंभीर चुनौतियांॅ हमारे सामने हैं .....“
 तब भी कुछ खास चुनौतियों के संदर्भ अन्तर्राष्ट्रीय थे, आज वे संदर्भ अधिक भयावह रूप में प्रस्तुत है। संयोग से गोदान भी जिन चुनौतियों से टकराते हुए पूर्णता प्राप्त करता है, बिगड़ी हुई शक्ल में वे चुनौतियांॅ भी हमारे सम्मुख है। धार्मिक- सांप्रदायिक फासीवपाद से बाजारवादी शक्तियों के गठजोड़ ने प्रगतिशील लेखन का संकट बढ़ाया। संस्कृति इतिहास के तीव्रतम आक्रमण की चपेट में है, जनपक्षधर शक्तियों के लगातार कमजोर होते जाने के कारण चुनौतियांॅ अधिक दुरूह तथा आक्रमण अधिक सघन हुआ है। लेखन को प्रमुखता देते हुए बहुआयामी सक्रियता से ही इनका कारगर मुकाबला किया जा सकता है। प्रगतिशीलता की आरंभिक अवधारणा भी यही रही है। जाहिर सी बात है इसके लिए दृष्टिकोण में बदली हुई व्यापकता तो लानी ही होगी। प्रगति की समय सापेक्षता का चिंतन तो साथ रहेगा ही।
 ”जो साहित्य मनुष्य के उत्पीड़न को छिपाता है, संस्कृति की झीनी चादर बुनकर उसे ढांॅकना चाहता है, वह प्रचारक न दीखते हुए भी वास्तव में प्रतिक्रियावाद का प्रचारक होता है।
संदर्भ:
1. नामवर सिंह, वाद- विवाद संवाद, पृ. 89
2. वही
3. वही, पृ. 91
4. हमीद अख्तर, रूदादे अन्जुमन, पृ. 190
5. वही, पृ. 198
6. वही, पृ. 190
7. सज्जाद जहीर, रौशनाई (हिन्दी अनुवाद), पृ. 243
8. डा. नामवर सिंह, वाद-विवाद संवाद
9. चन्द्रबली सिंह, ‘कथन’ त्रैमासिक, जुलाई-सितम्बर, 2011
10. नामवर सिंह, वाद-विवाद संवाद, पृ. 87
11. वही
12. राम विलास शर्मा, प्रगति और परम्परा, पृ. 50
- शकील सिद्दीकी